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यह लघुवृत्ति वस्तुतः लघुवृत्ति नहीं है, किन्तु श्रीजिनपति की बृहट्टीका का संक्षिप्त संस्करण मात्र ही है । बृहट्टीका में प्रपंचित पक्ष विपक्षप्रतिपादन, आगमिक उद्धरण इत्यादि का त्याग कर मूलग्रन्थानुसारिणी समग्र टीका का प्रारम्भ से अन्त तक पंक्ति-पंक्ति अक्षर-अक्षर का उद्धरण कर संक्षिप्त संस्करण तैयार किया है। उदाहरणार्थ केवल ३८वें पद्य की टीका की कुछ पंक्तियें ही देखिये
जिनपतिसूरि टीका-"साम्प्रतं प्रकरणकारः प्रकरणं समाप्नुवन्निष्टदेवतास्तवछद्मनाऽवसानमङ्गलं सूचयंश्चक्रबन्धेन स्वनामधेयामाविर्विभावयिषुराह
'बिभ्राजिष्णु' । व्याख्या-जिनं वन्दे इति सम्बन्धः । 'विभ्राजिष्णु' त्रिभुवनातिशायि चतुस्त्रिंशदतिशयत्वेनात्यन्तं शोभमानं, 'अगवं' उच्छिन्नाऽहङ्कारं 'अस्मरं' मथितमन्मथं 'श्रुतोल्लङ्घने' सिद्धान्ताज्ञाऽतिक्रमे 'अनाशादं' आशां-मनोरथं ददाति-पूरयति आशादः, न आशादो-अनाशादस्तं श्रुताऽऽज्ञाऽतिक्रमकारिणः पुंसो नानुमन्तारमित्यर्थः । 'सज्ज्ञानधुमणि' सज्ज्ञानेन-केवलज्ञानेन. लोकालोकावभासकत्वाद् भास्वन्तं 'जिन' तीर्थंकरम् इत्यादि।
अत: यह स्पष्टतया प्रतिपादित हो जाता है कि, यह केवल 'संस्करण' ही है, मौलिक टीका नहीं।
पूज्य उपाध्यायपदालंकृत मुनि-श्रीसुखसागरजी म.ने प्रस्तुत उपोद्धात लिखने का जो मुझे अवसर दिया है, एतदर्थ मैं आपका कृतज्ञ हूँ। अहमदाबाद
पूज्य श्रीजिनमणिसागरसूरीश्वरान्तेवासि लूणसावाडा जैन उपाश्रय
शा.वि. उपाध्याय विनयसागर १९-९-५२।
'साहित्याचार्य, जैन दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न [संस्कृत, हिन्दी]काव्यतीर्थ ।
(આ “ઉપોદ્યાત” લેખ શ્રીજિનદત્તસૂરિજ્ઞાનભંડાર, સુરત, દ્વારા પ્રકાશિત
“संघ५४४" पुस्तमाथी साभार ४९॥ ४३ छे.)
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