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इनमें आचार्य श्रीजिनपतिसूरि की टीका सब से बडी है और सर्वश्रेष्ठ भी। यह टीका अनुवाद सह पूर्व में प्रकाशित हो चुकी है। फिर हाल यह ग्रन्थ अवचूरि और दो लघुवृत्तियों के साथ प्रकाशित हो रहा
___ अवचूरिकार-महोपाध्याय साधुकीर्ति खरतरगच्छीय श्रीजिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य श्रीअमरमाणिक्य के शिष्य थे । आपने सं. १६१७ में युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि रचित पौषधविधिप्रकरणवृत्ति का संशोधन किया था। सं. १६२५ में आगरा में सम्राट अकबर की सभा में पौषधविधि विषय में भी बुद्धिसागरजी के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें निरुत्तर किया था । १६३२ मैं वैशाख सुदि १५ को श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। सं. १६४६ माघ वदि १४ को जालोर में आप का स्वर्गवास हुआ था। आपने अपने जीवनकाल में सप्तस्मरण बालावबोध आदि अनेकों ग्रन्थों की रचना की, जिन में २३ छोटे-मोटे ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत अवचूरि की रचना १६१९ माघ सुदि की ५ पंचमी को पूर्व हुई हैं। यह अवचूरि होते हुए भी स्पष्टार्थ प्रकाशित होने के कारण टीका का ही सादृश्य रखती है।
लक्ष्मीसेन-इनके सम्बन्ध में अन्य कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। केवल इस टीका की प्रशस्ति से ही ज्ञात होता है कि-वे खरतरगच्छीय विमलकीर्तिवाले श्रावक वीरदास के पौत्र और धीरवीर
श्रीहमीर के पुत्र थे। इन्हों ने यह स्फुटार्था नाम की टीका रचना सं. १५१३ में की है। संघपट्टक जैसे 'दूसरे काव्य की टीका १६ वर्ष की अवस्था में बनाना उन के पाण्डित्य का द्योतक है। -यह स्फुयर्था नाम की टीका सामान्य सी ही है। टीकाकार कई २ स्थलों पर शाब्दिक पर्यायों का कथन त्याग कर भावार्थ-तात्पर्य मात्र ही प्रकट करने को उत्सुक प्रतीत होती है, अत: कई स्थलों का विवेचन अस्पष्टासा रह गया है। साथ ही इनके सन्मुख बृहट्टीका होने के कारण कई स्थानों में उन्हीं शब्दों का अक्षरशः वाक्यविन्यास कर दिया है।
' इस में आश्चर्य की वस्तु यह है कि, काव्य की केवल २९ पद्य की टीका-प्राप्त नहीं होती है। इस सम्पादन में पू. उपाध्यायजी ने तीन प्रतियों का उपयोग किया है, और इस की एक प्रति मेरे संग्रह में भी है, पर किसी में भी इस श्लोक की टीका दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। अतः इस प्रकाशन में स्थानरिक्त न रखकर श्रीहर्षराज गणि की ही २९वें पद्य की टीका के रूप में दी है।
हर्षराज-ये श्रीजिनभद्रसूरि के शिष्य महोपाध्याय श्रीसिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य उ. श्री अभयसोम के शिष्य थे। इन के सम्बन्ध में विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं होता है। इस की प्रशस्ति में रचना-संवत् का उल्लेख भी नहीं है, पर महो० श्री सिद्धान्तरुचि के प्रशिष्य होने कारण इसकी रचना १५६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई है।
१. देखे युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ. १९२-से उद्धृत. २. इसी ग्रन्थ के पृ. २३. ३. इसी ग्रन्थ के पृ. ४३४४, श्लो. २-३-४-५.
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