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४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) के अर्थ में प्रयोग पाया जाता है । उदाहरणार्थ-किसी साधु
से कहा- अमुक वस्तु अभी तैयार नही है । अत आप __ अमक समय पर पधारिये ।' तो ऐसे अवसर पर शास्त्र कहता है कि हे साधु । आलोचना कर अर्थात् विचार कर
और गहस्थ से कह दे कि साधु के लिए किसी प्रकार की तैयारी न करो । साधु के लिए ही तैयार की हुई वस्तु साधु को कल्पती नही है ।
इस प्रकार आलोचना के अनेक अर्थ होते हैं। आलोचना के अनेक अर्थों के सवध मे जब बहुत दिनो तक विचार किया जाय तभी यह विपय भलीभाति स्पष्ट हो सकता है। मगर अभी इतना समय नही है । अत सक्षेप में इतना ही कहता हु कि 'लोचू दर्शने' धातु से 'लोचना' गव्द बना है और उससे पहले 'आ' 'उपसर्ग लगा देने से 'आलोचना' शब्द निप्पन्न हो जाता है । मोह के कारण हुए अकृत्य कार्यों को, भाव शुद्धि के लिए मर्यादापूर्वक प्रकट करना आलोचना का अर्थ है।
यहा यह प्रश्न किया जा सकता है कि आलोचना के अर्थ मे 'अकृत्य' क्यो घुसेड दिया जाता ? ऐसा क्यो नही कहा जाता कि जो कुछ भी किया गया है उसे गुरु के समक्ष प्रकट कर देना आलोचना है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जहा गिरने का भय होता है वही सावधानी रखने की यावश्यकता होती है । पुलिस की व्यवस्था चोरो से रक्षा करने के लिए ही है। अस्पताल भी रोगियो के रोग निवारण के लिए ही खोले जाते हैं और वैद्य के समक्ष रोग प्रकट किये जाते है । इस प्रकार जहा गिरने या विगड जाने का भय रहता है, वही सावधानी रखने के लिए कहा