Book Title: Samyag Darshan Part 03
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
और कुम्हार को एकता नहीं है; उसी प्रकार ज्ञानपरिणाम को और आत्मा को एकता है परन्तु ज्ञानपरिणाम को और राग को या कर्म को एकता नहीं है; इसलिए ज्ञानपरिणाम द्वारा ही ज्ञानी का आत्मा पहचाना जाता है।
ज्ञानपरिणाम को राग से भिन्न पहचानने पर अपने में भी ज्ञान और राग की भिन्नता का वेदन होकर, ज्ञानपरिणाम के साथ अभेद ऐसा स्वयं का आत्मा पहचानने में आता है। ज्ञानी को पहचानने का प्रयोजन तो अपने आत्मा की पहचान करना ही है। जिन्होंने भेदज्ञान कर लिया है - ऐसे जीवों की पहचान द्वारा यह जीव अपने में भी ऐसा भेदज्ञान करना चाहता है। सामने ज्ञानी के आत्मा में ज्ञान और राग को भिन्न पहचाननेवाला जीव, अपने में भी ज्ञान और राग को अवश्य भिन्न पहचानता है; इसलिए उसे अवश्य भेदज्ञान होता है। भेदज्ञान होने पर यह जीव, सकल विकार के कर्तृत्वरहित होकर ज्ञायकरूप से शोभित होता है। विकार के कर्तृत्व में तो जीव की शोभा का हनन होता है और भेदज्ञान द्वारा वह कर्तृत्व छूटने से आनन्दमय ज्ञानपरिणाम से वह जीव शोभित हो उठता है। ऐसा ज्ञानपरिणाम ही ज्ञानी को पहचानने का चिह्न है।
देखो, यह ज्ञानी को पहचानने की विधि! आहा! ज्ञानी को पहचानने की विधि, आचार्यदेव ने अद्भुत बतलायी है। इस विधि से जो ज्ञानी को पहचानता है, वह स्वयं ज्ञानी हुए बिना नहीं रहता - ऐसी यह पहचान है। यह पहचान ही धर्म की महा खान है। इस विधि से जिसने ज्ञानी को पहचाना, उसने ही ज्ञानी की वास्तविक निकटता की है। जैसा ज्ञानी का भाव है, वैसा ही भाव उसने स्वयं
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