Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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प्राद्य वक्तव्य (२)
पं. रतमचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' ग्रंथ आपके हाथों में सौंपते हुए आज हमें अपार प्रसन्नता है । पर साथ ही इस बात का खेद भी है कि जो काम हमें बहुत पहले सम्पन्न कर लेना चाहिए था, वह इतने विलम्ब से हो रहा है। न तो आज वह अभिनन्दनीय विभूति-पण्डित रतनचन्द मुख्तार–ही हमारे बीच हैं और न इस ग्रंथ के लिए हमारा मार्गदर्शन कर हमें आशीष देने वाले परम पूज्य आचार्य कल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज हो । आदरणीय विद्वद्वर्य पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ने विस्तार से प्रस्तुत ग्रंथ की उद्भावना का समग्र इतिहास अपने वक्तव्य में लिपिबद्ध किया है। वस्तुतः सामग्री इतनी प्रचुर थी और कार्य इतना दुष्कर लग रहा था कि कोई सही अनुमान बन ही नहीं पाया; ग्रन्थ का कलेवर बढ़ता ही चला गया और साथ-साथ अन्य सभी सम्बद्ध कार्य भी, अतः विलम्ब होता ही गया।
मुझे स्वर्गीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार के साथ "त्रिलोकसार' के सम्पादन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और तभी उनके सान्निध्य का सुअवसर भी सुलभ हुआ था। मुख्तार सा० सीधे, सरल, सच्चे श्रावक थे। सीमित परिग्रह, सीमित आवश्यकताएँ, मित भाषण परन्तु ज्ञानार्जन की असीम ललक और अजित ज्ञान के मुक्त वितरण की अद्भुत भावना उस श्रुतसाधक के व्यक्तित्व को अद्भुत रूप प्रदान करती थीं। वृद्धावस्था में भी, अस्वस्थ होने पर भी उन्हें प्रतिदिन ८.८, १०-१० घण्टे से कम के स्वाध्याय में सन्तोष नहीं होता था। जो कुछ अजित करते थे, उसे पचाकर सरल शब्दों में सबके लिये प्रस्तुत करना उनकी अद्वितीय विशेषता थी। क्लिष्ट से क्लिष्ट विषय को भी वे इतनी सरलता से समझाते थे कि बात शीघ्र समझ में आ जाती। 'शंका-समाधान' में भी उनकी यही शैली रही है। चाहे किसी अनुयोग से सम्बन्धित शंका हो, पहले वे नपे तुले शब्दों में बड़ी सुबोध शैली में उसका समाधान करते हैं और फिर उसके लिये प्रागम ग्रन्थों से उस विषय के प्रमाण जुटाते हैं। किसी पर प्राक्षेप/कटाक्ष करना कभी उनका लक्ष्य नहीं रहा । कटुभाषा का उन्होंने कभी प्रयोग नहीं किया परन्तु गलत समझ और गलत विवेचना का सप्रमाण खण्डन करने में भी वे सरस्वती के वरदपुत्र कभी नहीं हिचके । इस काल में उन जैसा व्यक्तित्व कोई दूसरा नहीं दीखता । जैन गजट और जैन सन्देश में 'शंका-समाधान' के रूप में अपने जीवन काल में जिस ज्ञान का वितरण उन्होंने किया था, प्रस्तुत ग्रन्थ उसी का पुनर्वितरण आज भी और आने वाली पीढ़ियों को भी करता रहे यही इस महान् विशालकाय प्रकाशन का प्रयोजन है। पूज्य पण्डितजी के जीवन-काल में जो शंका समाधान 'जैन गजट' कार्यालय को भेजे जा चुके थे, वे उनके स्वर्गस्थ होने के बाद भी कुछ काल तक छपते रहे । वे भी इस संग्रह में हैं।
ग्रन्थ दो जिल्दों में है । कुल पृष्ठ संख्या है १५२८ । प्रथम जिल्द की पृष्ठ संख्या है ३२+८७२ । इसमें प्रारम्भ में १२ पृष्ठों में पूज्य स्वर्गीय पण्डितजी की संक्षिप्त जीवन झांकी है जिसे उन्हीं के अन्यतम शिष्य पं० जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ने लिखा है। फिर ८ पृष्ठों में आर्ट पेपर पर पूज्य पण्डितजी के जीवन की छाया
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