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- रायचन्द्र जैनशाखमाला -
[ अ० १, गा० ६५
च वटाचूर्णावचूर्णनमिव, विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढव्रणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासौ । ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ॥ ६४ ॥
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अथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनतां प्रविहन्ति — पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवंदि देहो ॥ ६५ ॥ प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्शैः समाश्रितान् स्वभावेन । परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ॥ ६५ ॥ अस्य खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, तद्दुःखं खभावेन नास्ति हि स्फुटं वावारो णत्थि विसयत्थं तर्हि विषयार्थं व्यापारो नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामौषधेष्विव विषयार्थं व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्ती - त्यभिप्रायः ॥ ६४ ॥ एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्य दुःखस्थापनार्थं गाथाद्वयं गतम् । अथ [न] न होता, तो [ विषयार्थ ] विपयोंके सेवनेके लिये [ व्यापारः ] इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी [ नास्ति ] नहीं होती । भावार्थ-जिन जीवोंके इंद्रियाँ जीवित हैं, उनके अन्य ( दूसरी ) उपाधियोंसे कोई दुःख नहीं है, सहजसे ये ही महान् दुःख हैं, क्योंकि इंद्रियाँ अपने विषयोंको चाहती हैं, और विषयोंकी चाहसे आत्माको दुःख उत्पन्न होता प्रत्यक्ष देखा जाता है । जैसे - हाथी स्पर्शन इंद्रिय विषयसे पीड़ित होकर कुट्टिनी ( कपटिनी ) हथिनीके वशमें पड़के पकड़ा जाता है । रसना इंद्रिय विषयसे पीड़ित होकर मछली बडिश ( लोहेका काँटा ) के मांसके चाखनेके लोभसे प्राण खो देती है । भौंरा प्राण इंद्रिय विषयसे सताया हुवा संकुचित (मुँदे) हुए कमल में गंधके लोभसे कैद होकर दुःखी होता है । पतङ्ग जीव नेत्र इंद्रियके विषय से पीड़ित हुआ दीपकमें जल मरता है, और हरिन श्रोत्र इंद्रियके विषयवश वीणाकी आवाजके वशीभूत हो, व्याधाके हाथसे पकड़ा जाता है । यदि इंद्रियाँ दुःखरूप न होतीं, तो विषयकी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि शीतज्वरके दूर होनेपर अग्निके सेककी आवश्यकता नहीं रहती, दाहज्वर के न रहनेपर कांजी-सेवन व्यर्थ होता है, इसी प्रकार नेत्र - पीड़ाकी निवृत्ति होनेपर खप - रियाके संग मिश्री आदि औपध, कर्णशूल रोगके नाश होनेपर बकरेका मूत्र आदि, व्रण ( घाव ) रोगके अच्छे होनेपर आलेपन ( पट्टी ) आदि औषधियाँ निष्प्रयोजन होती हैं, उसी प्रकार जो इंद्रियाँ दुःखरूप न होवें, तो विषयोंकी चाह भी न होवे । परंतु इच्छा देखी जाती है, जो कि रोगके समान है, और उसकी निवृत्तिके लिये विषय-भोग औषध तुल्य हैं । सारांश यह हुआ, कि परोक्षज्ञानी इंद्रियाधीन स्वभावसे ही दुःखी हैं ॥ ६४ ॥
अव कहते हैं, कि मुक्तात्माओंको शरीरके विना भी सुख है, इसलिये शरीर सुखका