Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 473
________________ ३२६ - रोयचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ०३, गा० ३६आगमपूर्वा दृष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य । नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ॥ ३६॥ इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया शून्यस्य खपरविभागागावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतो निरुद्धविषयाभिलाषतया षड्जीवनिकायघातिनो भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्रमाक्रमणनिर्मलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्र्यप्रवृत्त्यभावाच संयम एव न तावत् सिद्ध्येत् । असिद्धसंयमस्य तु सुनिश्चितैकाश्यगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनामश्रामण्यमेव न तदुभयपूर्वकसंयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति-आगमपुवा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह आगमपूर्विका दृष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णथि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणदि इत्येवं भणति कथयति । किं कर्तृ । सुत्तं सूत्रमागमः । असंजदो होदि किध समणो असंयतः सन् श्रमणस्तपोधनः कथं भवति न कथमपीति । तथाहि-यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि परमागमबलेन विशदैकएक कालमें होवें, तो मोक्षमार्ग होता है, ऐसा निश्चय करते हैं-[इह ] इस लोकमें [यस्य ] जिस जीवके [आगमपूर्वा] पहले अच्छी तरह सिद्धान्तको जानकर [दृष्टिः] सम्यग्दर्शन [म अवति ] नहीं हो, [तस्य ] तो उसके [संयमः] मुनिकी क्रियारूप आचार [नास्ति] नहीं होता, [इति] यह बात [सूत्रं] जिन- । प्रणीत सिद्धान्त [अणति] कहता है, [ असंयतः] और जिसके संयमभाव नहीं है, वह पुरुष [कथं] कैसे [श्रमणः] मुनि [भवति हो सकता है ? नहीं हो सकता। भावार्थ-जिस पुरुषके प्रथम ही आगमको जानकर पदार्थोका श्रद्धान न हुआ हो, उस पुरुषके संयमाव भी नहीं होता, यह निश्चय है, और जिसके संयम नहीं हैं, वह मुनि नहीं कहा जाता। जिसके आगमको जानकर श्रद्धान हुआ हो, वही मुनि कहलाता है, अन्यथा नहीं कहा जाता । इसी कथनको विशेषतासे दिखलाते हैं-ज्ञान दर्शन चारित्रका जो एक ही बार होना उसको सोक्षमार्ग कहते हैं, क्योंकि जो जीव अनेकान्त ध्वजाकर विराजमान आगम-ज्ञानके अनुसार श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे रहित है, उसके भेदविज्ञानके अभावसे स्वपरका भेद नहीं होता, कपाय परिणामोंसे एकताका अभ्यास होता है, वहाँपर राग, द्वेष, मोह, भावसे विपयामिलापाका निरोध नहीं होता, इन्द्रियें विषयोंमें प्रवर्ततीं हैं, षटकायके जीवोंकी हिंसा होती है, अटकसे रहित हुआ यथेच्छाचारी होता है, सर्व त्यागरूप मुनिव्रत नहीं होता, उसी प्रकार निर्विकल्प समाधिकर परमात्मज्ञान भी नहीं होता, और ज्ञेय पदार्थो में प्रवर्तनेवाली स्वच्छंद ज्ञानवृत्ति उस स्वरूपमें एकाग्र भावसे ज्ञानप्रवृत्तिका अभाव है। इस कारण ऐसे जीवके आगमज्ञानपूर्वक श्रद्धान,

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