Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 496
________________ ५६.] -प्रवचनसारः ३४९ शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यं भावित्वात् ॥५५॥ अथ कारणवैपरीत्यफलवैपरीसे दर्शयतिछदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणभावं भावं सादप्पगं लहदि ॥५६॥ __ छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ॥ ५६ ॥ शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किल फलं, तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव । तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च । नो चेत्पुण्यबन्धमात्रमेव ॥ ५५ ॥ अथ कारणवैपरीत्यात्फलमपि विपरीतं भवति तमेवार्थ द्रढयति-ण लहदि न लभते । स कः कर्ता । वदणियमज्झयणझाणदाणरदो व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । केषु विषयेषु । यानि व्रतादीनि । छदुमत्थविहिदवत्थुसु छद्मस्थविहितवस्तुषु अल्पज्ञानिपुरुषव्यवस्थापितपात्रभूतवस्तुषु । इत्यंभूतः पुरुषः कं न लभते । . अपुणभावं अपुनर्भवशब्दवाच्यं मोक्षम् । तर्हि किं लभते । भावं सादप्पगं लहदि भावं सातात्मकं लभते । भावशब्देन सुदेवमनुष्यत्वपर्यायो ग्राह्यः । स च कथंभूतः । सांतात्मकः सद्वेद्योदयरूप इति । तथाहि-ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग न जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेवादयः । तैः छमस्थैरज्ञानिभिः शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्य दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते । तत्पात्रसंसर्गेन यद्तनियमाध्ययनदानादिकं करोति तदपि शुद्धापात्रके भेदसे विपरीत फलको भी देता है, जिस तरहका पुरुष खराब और अच्छा होता है, वहाँ वैसे फलको उत्पन्न करता है, वह कारणके भेदसे कार्य में भेद अवश्य होजाता है ॥५५॥ आगे कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता दिखलाते हैं-[छद्मस्थविहितवस्तुषु] अज्ञानी जीवोंकर अपनी बुद्धिसे कल्पित देव गुरु धर्मादिक पदार्थों में [व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः] जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओंमें लीन है, वह पुरुष [अपुनर्भावं] मोक्षको [ न ] नहीं [लभते] पाता, किन्तु [सातात्मकं भावं ] पुण्यरूप उत्तम देव मनुष्यपद्वीको [ लभते ] पाता है। भावार्थ-सर्वज्ञ वीतरागकर स्थापित देव, गुरु, धर्मादिकमें जो शुभोपयोगरूप भाव निश्चल होते हैं, उनका फल साक्षात् पुण्य है, परम्परा मोक्ष है, और इस ही शुभोपयोगके कारणकी विपरीततासे विपरीत होता है, और विपरीत फलको करता है, यही दिखलाते हैंजिन अज्ञानी जीवोंने देव, गुरु, धर्मादिक वस्तु स्थापित की हैं, वे कारण विपरीत हैं, उनमें व्रत, नियम, पठन, पाठन, ध्यान, दानादिककर अति प्रीतिसे लगनेरूप जो शुभोपयोग है, उससे मोक्षकी प्राप्ति नहीं है, कणके विना अकेले पयाल ( भूसे )की तरह पुण्यरूप

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