Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 511
________________ ३६४ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा०७३वर्तितौत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपमेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचारवियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात् स खलु संपूर्णश्रामण्यः साक्षात् श्रमणो हेलावकीर्णसकलप्राक्तनकर्मफलत्वादनिष्पादितनूतनकर्मफलत्वाच पुनः प्राणधारणदैन्यमनास्कन्दन् द्वितीयभावपरावर्ताभावान् शुद्धस्वभावावस्थितवृत्तिमोक्षतत्त्वमवबुध्यताम् ॥७२॥ अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमुद्घाटयति सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्ध त्ति णिहिट्वा ॥७३॥ सम्यग्विदितपदार्थास्त्यक्त्वोपछि बहिस्थमध्यस्थम् । विषयेषु नावसक्ता ये ते शुद्धा इति निर्दिष्टाः ॥ ७३ ॥ अनेकान्तकलितसकलज्ञातृज्ञेयतत्त्वयथावस्थितस्वरूपपाण्डित्यशौण्डाः सन्तः समस्तबहिरङ्गान्तरङ्गसङ्गसङ्गतिपरित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचैतन्यभाखरात्मतत्त्वसन् चिरं ण जीवदि चिरं बहुतरकालं न जीवति न तिष्ठति अफले शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादरहितत्वेनाफले संसारे। किम् । शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । अयमन भावार्थ:इत्थंभूतमोक्षतत्त्वपरिणत पुरुष एवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ॥ ७२ ॥ अथ मोक्षकारणमाख्याति-सम्मं विदिदपदत्था संशयविपर्ययानध्यवसायरहितानन्तज्ञानादिखभावनिजपरमात्मपदार्थप्रभृतिसमस्तवस्तुविचारचतुरचित्तचातुर्यप्रकाशमानसातिशयपरमविवेकज्योतिषा सम्यग्विदितपदार्थाः । पुनरपि किंरूपाः । विसयेसु णावसत्ता पञ्चेन्द्रियविषयाधीनरहितत्वेन निजात्मतत्त्वभावनारूपपरमसमाधिसंजातपरमानन्दैकलक्षणसुखसुधारसास्वादानुभवनफलेन विषयेषु मनागप्यनासक्ताः । किं कृत्वा । पूर्व खखरूपपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा चत्ता त्यक्त्वा । कम् । उवहिं उपधिं परिग्रहम् । किंविशिष्टम् बहिस्थमज्झत्थं बहिस्थं क्षेत्राद्यनेकविधं मध्यस्थं मुनिपदवीका धारक महामुनि पूर्व बँधे समस्त कर्म-फलोंकी निर्जरा करता है, नवीन कर्मबंध-फलका उत्पन्न करनेवाला नहीं होता, इससे फिर संसारिक प्राणोंके धारण करनेकी दीनताको नहीं करता । जिसके दूसरी पर्यायका अभाव है, ऐसा यह शुद्ध स्वरूपमें स्थित मुनि है, उसीको तुम मोक्षतत्त्व जानो, अन्य मोक्ष नहीं। जो परद्रव्यसे मुक्त हुआ स्वरूप में लीन है, वही जीव मुक्त है ॥ ७२ ॥ आगे मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व दिखलाते हैं[ये] जो जीव [सम्यग् ] यथार्थ [विदितपदार्थाः ] समस्त तत्त्वोंको जानते हैं, तथा [बहिस्थमध्यस्थं] बाह्य और अंतरंग रागादि [उपधिं] परिग्रहको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [विषयेषु ] पाँच इन्द्रियोंके स्पर्शादि विषयोंमें [न अवसक्ताः ] लीन नहीं हैं [ते] वे, जीव [शुद्धाः] निर्मल भगवन्त मोक्षतत्त्वके साधन हैं, इति] ऐसे [ निर्दिष्टाः ] कहे गये हैं। भावार्थ-जो अनेकान्तपने सहित

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