Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 512
________________ ७४.] स्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषुप्तकल्पान्तस्तत्त्ववृत्तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्तः समस्तानुभाववन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकवाटविघटनपटीयसाध्यप्रकटीक्रियमाणावदानावमोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ॥ ७३ ॥ प्रवचनसारः वसायेन अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वं सर्वमनोरथस्थानत्वेनाभिनन्दयति सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिवाणं सो चिय सिद्धो णमो तस्स ॥ ७४ ॥ शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥ ७४ ॥ - ३६५ यत्तावत्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयौगपद्यप्रवृत्तैकाग्र्यलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं मिथ्यात्वादिचतुर्दशभेदभिन्नम् । जे एवंगुणविशिष्टाः ये महात्मानः ते सुद्ध त्ति णिहिडा ते शुद्धात्मानः शुद्धोपयोगिनः सिद्ध्यन्ति इति निर्दिष्टाः कथिताः । अनेन व्याख्यानेन किमुक्तं भवति — इत्थंभूताः परमयोगिन एवाभेदेन मोक्षमार्गा इत्यवबोद्धव्याः ॥ ७३ ॥ अथ शुद्धोपयोग - लक्षणमोक्षमार्ग सर्वमनोरथस्थानत्वेन प्रदर्शयति - भणियं भणितम् । किम् । सामण्णं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैकाग्र्यशत्रुमित्रादिसमभावपरिणतिरूपं साक्षान्मोक्षकारणं यच्छ्रामण्यम् । तत्तावकस्य । सुद्धस्स य शुद्धस्य च शुद्धोपयोगिन एव सुद्धस्स दंसणं णाणं त्रैलोक्योदरविवरवर्तित्रिकालविषय समस्त वस्तुगतानन्तधर्मकसमयसामान्यविशेषपरिच्छित्तिसमर्थ दर्शनज्ञानद्वयं तच्छुद्धस्यैव सुद्धस्स य णिवाणं अव्यावाधानन्तसुखादिगुणाधारभूतं पराधीनरहितत्वेन स्वायत्तं यन्निर्वाणं तच्छुद्धस्यैव सो चिय सिद्धो यो लौकिकमायाञ्जनरसदिग्विजयमन्त्रयन्त्रादिसिद्धविलक्षणखशुद्धात्मोपलम्भलक्षणटोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावो ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मरहितत्वेन सम्य सकल ज्ञेय ज्ञायक तत्त्वोंके यथार्थ जाननेमें प्रवीण हैं, समस्त बाह्य अंतर परिग्रहको त्यागकर दैदीप्यमान हुए हैं, अनंत ज्ञानशक्तिकर विराजमान आत्मतत्त्व जिनके घटमें है, इन्द्रियोंके विषयों में किसी समय भी आसक्त नहीं होते, स्वरूपमें ऐसे लीन हैं, कि मानों सुखसे सोरहे हैं, इसलिये विषयोंसे रहित हैं, संसार में लगे कर्मरूप किवाड़ोंके उघाड़ने को जिन्होंने अपनी शक्ति प्रगट की है, और महाप्रभाव सहित हैं, ऐसे शुद्धजीव हैं, वे ही मोक्षतत्त्वके साधक जानने चाहिये ॥ ७३ ॥ आगे मोक्षतत्त्वका साधनतत्त्व सर्व मनोवाञ्छित अर्थोंका स्थान है, यह दिखलाते हैं - [ शुद्धस्य ] जो परम वीतरागभावको प्राप्त हुआ मोक्षका साधक परम योगीश्वर है, उसके [ श्रामण्यं ] सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी एकताकर एकाग्रता लिये हुए साक्षात् मोक्षमार्गरूप यतिपद [ भणितं ] कहा है, [च] और [ शुद्धस्य ] उसी शुद्धोपयोगी मोक्षसाधक मुनीश्वरके [ दर्शनं ज्ञानं ] अतीत, अनागत, वर्तमान, अनन्त पर्याय सहित सकल पदार्थों को सामान्य विशेषतासे

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