Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 521
________________ ३७४ [अ० ३, " - रायचन्द्रजैनशास्त्रमालातोयाकर इवात्मन्येवातिनिःप्रकम्पस्तिष्ठन् युगपदेव व्याप्यानन्ता. ज्ञप्तिव्यक्तीरवकाशाभावान्न जातु विवर्तते, तदास्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम: -मैत्री प्रवर्तते । ततः सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौगलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतानुवृत्तिदूरीभूतो दूरत एवाननुभूतपूर्वमपूर्वज्ञानानन्दखभावं भगवन्तमात्मानमवा-' ! भोति । अवाप्नोत्वेव ज्ञानानन्दात्मानं जगदपि परमात्मानमिति ॥ भवति चात्र श्लोकः"आनन्दामृतपूरनिर्भरवहत्कैवल्यकल्लोलिनीनिर्मग्नं जग़दीक्षणक्षममहासंवेदनश्रीमुखम् ।। स्यात्काराङ्कजिनेशशासनवशादासादयन्तूल्लसत्वं तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्टमिष्टंजनाः ॥ व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्यातु गुम्फे गिरां व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाजनो वल्गतु । वल्गत्वद्य विशुद्धबोधिकलया स्याद्वादविद्याबलात् लब्ध्वैकं सकला- . .त्मशाश्वतमिदं खं तत्त्वमव्याकुलः ॥१॥ इति गदितमनीचैस्तत्त्वमुच्चावचं यञ्चिति तदपि ! किलाभूत्कल्पमन्नौ हुतस्य । अनुभवतु तदुच्चैश्चिच्चिदेवाद्य यस्मादपरमिह न किंचित्तत्त्वमेकं पुरं चित् ॥ २ ॥ समाप्तेयं तत्त्वदीपिका टीका। लक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवलाभे सत्यमावास्या दिवसे जलकल्लोलक्षोभरहितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलक्षोभरहितग्रस्तावे यथा निजशुद्धात्मतत्त्वे स्थिरो भवति तथा तदैव निजशुद्धात्मस्वरूपं प्राप्नोति ॥ . इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण 'एस सुरासुर' इत्यायेकोत्तरशतगाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं 'तम्हा तस्स णमाई' इत्यादि . त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यन्तं ज्ञेयाधिकारापरनामसम्यक्त्वाधिकारः, तदनन्तरं तवसिद्धे णयसिद्धे' इत्यादि सप्तनवतिगाथापर्यन्तं चारित्राधिकारश्चेति महाधिकारत्रयेणैकादशाधिकत्रिशतगाथामिः प्रवचनसारप्राभृतं समाप्तम् ॥ समाप्तेयं तात्पर्यवृत्तिः प्रवचनसारस्य ।। यह अनादिनिधन शब्दब्रह्म अपने अर्थरसकर गर्मित है, किसी पुरुषसे इसका अर्थ किया हुआ नहीं हो सकता, आप ही अर्थशक्तिकर प्रवर्तता है । इसलिये ऐसा कोई नहीं समझलेना कि प्रवचनसारका अर्थ मैंने किया है, वह तो स्वतःसिद्ध ही है । हे भव्यो ! निर्मल ज्ञान-कलाके प्रकाशसे अनेकान्त-विद्याको निश्चयसे धारण करके एक परमात्मतत्त्वको पाकर परमआनंदरूप होवो । जो महाबुद्धिवन्त हुए हैं, वे भी तत्त्वके कथन-समुद्रके पारगामी नहीं हुए, और जो थोड़ा-बहुत तत्त्वका कथन मैंने किया है, वह सब तत्त्वकी अनन्ततामें इस तरह समा गया है, मानो कुछ कहा ही नहीं, जैसे आगमें होम करनेको वस्तु कितनी ही डालो कुछ नहीं रहती, उसी प्रकार तत्त्वमें सब कथन समा जाता है। इस कारण परमात्मतत्त्व । वचनसे नहीं कहा जा सकता, केवल अनुभवगम्य है, इससे हे भव्यो ! चिन्मान वस्तुको अनुभवो, क्योंकि इस लोकमें दूसरी उत्तम वस्तु कोई नहीं है । इस लिये श्रीअमृतचंद्राचार्य कहते हैं, कि चिदानन्द परमात्मतत्त्वका हमेशा घटमें (अंतरंगमें) प्रकाश करो। ....इति बालबोधिनी भाषाटीका।

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