Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 480
________________ ४१.], -प्रवचनसारः - ३३३ वलनादेकीभूतमपि स्वभावभेदपरत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीड्य निष्पीड्य कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धदृशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यं सिद्ध्यति ॥ ४०॥ अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य कीदृग्लक्षणमित्यनुशास्ति समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोडकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥४१॥ समशत्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्टकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ॥४१॥ संयमः सम्यग्दर्शनज्ञानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्यं मोहक्षोभविहीनः परिणतः समितः तिगुत्तो व्यवहारेण मनोवचनकायनिरोधत्रयेण गुप्तः त्रिगुप्तः निश्चयेन खरूपे गुप्तः परिणतः पंचेंदियसंवुडो व्यवहारेण पञ्चेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या संवृतः पञ्चेन्द्रियसंवृतः निश्चयेन वातीन्द्रियसुखखादरतः जिदकसाओ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषायः निश्चयेन चाकषायात्मभावनारतः दंसणणाणसमग्गो अत्र दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् । ज्ञानशब्देन तु वसंवेदनज्ञानमिति ताभ्यां समग्रो दर्शनज्ञानसमग्रः समणो सो संजदो भणिदो स एवंगुणविशिष्ट ः श्रमणः संयत इति भणितः । अत एतदायात व्यवहारेण यद्बहिर्विषये व्याख्यानं कृतं तेन सविकल्पं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं योगपद्यं ग्राह्यम् । अभ्यन्तरव्याख्यानेन तु निर्विकल्पात्मज्ञानं ग्राह्यमिति सविकल्पयोगपद्य निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति ॥ ४०॥ अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वजिन कपायोंसे यह चैतन्यवृत्ति परद्रव्यमें गमन करती है, और जो कषाय आत्माके साथ परस्पर मिलनेसे एकताको धारण करते हैं, उन कपाय-शत्रुओंको निश्चयकर अपनेसे जुदे जान उनको एक ही बार अपने ज्ञानकी अधिकतासे चूर चूर कर डाला है, जैसे प्रवीण मल्ल अपने शत्रु-मल्लको मसल मसल कर प्राणरहित कर देता है, उसी तरह विनाश किया, है, ऐसा वह महा मुनि सुभट, सब परद्रव्यसे रहित हुआ, ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी स्थिरतासे साक्षात् संयमी है, और उसी मुनिके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमकी एकता है, तथा आत्मज्ञानकी एकता है ॥४०॥ आगे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभावका एकत्व और आत्मज्ञानका एकत्व जिस मुनिके सिद्ध हुआ है, और वह जिन लक्षणोंसे मालूम होता है, उनको दिखाते हैं-[श्रमणः] समता भावमें लीन महा मुनि है, वह [ समशबन्धुवर्गः] शत्रु कुटुम्बके लोग इनमें समान भाववाला है, [समसुखदुःखः]

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