Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 462
________________ ३०.] - प्रवचनसारः ३१५ ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृद्वाचरणमाचरता संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमथाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम् ॥३०॥ कथंचित्परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्रस्य रक्षां दर्शयति-चरदु चरतु, आचरतु । किम् । चरियं चारित्रमनुष्ठानम् । कथंभूतम् । सजोगं स्खयोग्यमवस्थायोग्यम् । कथं यथा भवति । मूलच्छेदो जधाण हवदि मूलच्छेदो यथा न भवति । स कः कर्ता चरति । बालो वा वुडो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतः पीडितः श्रमाभिहतो वा ग्लानो व्याधिस्थो वेति । तद्यथा-उत्सर्गापवादलक्षणं कथ्यते तावत्स शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्व त्याज्यमित्युत्सर्गो निश्चयनयः सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो व्यवहारनय एकदेशपरित्यागस्तथाचापहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्र शुद्धात्मभावनानिमित्तं सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गे दुर्धरानुष्ठाने प्रवर्तमानस्तपोधनः शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिकं गृह्णातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गो भण्यते । यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः । यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युउत्सर्गमार्गसे मैत्रीभाव करना योग्य है। जो अपवादमार्गी रोगादिकसे पीड़ित हुआ शरीरकी रक्षाके लिये जघन्य ही आचरण करने में प्रवृत्त (तैयार) होगा, तो वह प्रमादी हुआ, उत्कृष्ट संयमको नहीं पा सकेगा, और जघन्य संयमका भी नाश करेगा। इसलिये अपवादमार्गीको उत्सर्गमार्गसे मैत्रीभाव रखना योग्य है । यही मैत्रीभाव दिखलाते हैं-वाल, वृद्ध, खेद, रोग, इन दशाओंकर यद्यपि मुनि पीड़ित हो, तो भी शुद्धात्मतत्त्वका साधनेवाला जो संयम है, उसका नाश जिस तरह न हो, उसी प्रकार अति कठिन आचरणको आचरे, परंतु वही मुनि जिस तरह संयमका कारण शरीरका नाश न हो, उसी प्रकार अपने योग्य कोमल आचरण भी आचरे । ऐसा मुनि अपवादमार्गकी अपेक्षा सहित उत्सर्गमार्गी कहा जाता है। तथा बाल, वृद्ध, खेद, रोग, इन अवस्थाओंसे सहित मुनि संयमके साधन शरीरका जिस तरह नाश न हो, उस तरह अपने योग्य कोमल आचरणको आचरता है, परन्तु वही मुनि जिस तरह शुद्धात्मतत्त्वका साधक संयमका नाश न हो, उसी प्रकार अति कठोर आचरणको आचरे, तो वह उत्सर्गमार्गकी अपेक्षा लिये हुए, अपवादमार्गी है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों मार्गोमें जो परस्पर --- पैत्रीभाव होवे, तो मुनिके आचारकी स्थिरता अच्छी तरह होसकती है ॥३०॥

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