Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 469
________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला [ अ० ३, गा० ३३पीतोन्मत्तकस्येवावकीर्णविवेकस्याविविक्तेन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चितशरीरादिद्रव्येषूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकखानुभवाभावादयं परोऽयमात्मेति ज्ञानं सिद्ध्येत् । तथाच त्रिसमयपरिपाटी प्रकटितविचित्रपर्यायप्राग्भारागाधगम्भीरखभावं विश्वमेव ज्ञेयीकृत्य प्रतपतः परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावात् ज्ञानखभावस्यैकस्य परमात्मनो ज्ञानमपि न सिद्ध्येत् । परात्मपरमात्मज्ञानशून्यस्य तु द्रव्यकर्मारब्धैः शरीरादिभिस्तत्प्रत्ययै महरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्यमाकलयतो वध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्ध्येत् । पज्जती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिदा" इति गाथाकथिताद्यागममजानन् तथैव "भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहं परमत्थु । सो अंधर अवरहं अंधयहं किं दरिसाव पंथु" इति दोहकसूत्रकथिताद्यागमपदसारभूतमध्यात्मशास्त्र चाजानंन् पुरुषो रागादिदोषरहिताव्याबाधसुखादिगुणखरूपनिजात्मद्रव्यस्य भावकर्मशब्दाभिधेयै रागादिनानाविकल्पजालैर्निश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति तथैव कर्मारिविध्वंसकखकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेत्ति । तथा चाशरीरलक्षणशुद्धात्मपदार्थस्य शरीरादिनोकर्मकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति । इत्थंभूतजीवको सिद्धान्तका ज्ञान न हो, और आगमके पढ़ने सुननेरूप अभ्यास से रहित होवे, उसको अपना और परका ज्ञान नहीं होता, और निर्विकल्परूप परमात्माका भी ज्ञान नहीं ' होता है, उसीको दिखलाते हैं—अनंत संसाररूपी नदीका बढ़ानेवाला जो यह महामोह है, उससे कलंकित ( मलीन) हुए जगत - जीव हैं, वे भगवंतप्रणीत आगमके विना विवेकसे रहित हैं, जैसे धतूरेको पीकर उन्मत्त (बावला) हुआ मनुष्य करने योग्य कार्य और अकार्यको नहीं जानता, उसी तरहसे अनजान हो रहे हैं, पर और आत्माको एक स्वरूप देखते हैं, जानते हैं, शरीरादि परद्रव्यमें और उपयोगसे मिले हुए राग, द्वेष, मोह, भावोंमें एकता मानते हैं । स्वपर भेदका कारण जो सिद्धान्त उसके उपदेशसे जिसके आत्माका अनुभव नहीं हुआ है, इस कारण उसके यह आत्मा है, यह पर है, ऐसे भेदविज्ञानकी सिद्धि नहीं होती । और निर्विकल्प समाधिसे एक परमात्मज्ञानकी भी सिद्धि नहीं होती । वह परमात्मा तीन कालसंबंधी अनंत नाना प्रकारकी पर्यायों सहित लोक अलोकरूप समस्त ज्ञेयको एक समय में जानकर प्रकाशमान है, ऐसे केवलज्ञान स्वभावरूप आत्माको नहीं जानता है । जो परमात्मा के भेदविज्ञानसे शून्य है, और परमात्मज्ञानसे भी शून्य है, वह पुरुष द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मसे आत्माको एक ( मिला हुआ ) मानता है, ऐसा नहीं समझता, कि ये कर्म आत्माके घातक हैं, आत्मा इनसे घाता जाता है, इसी लिये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, ऐसा भेद नहीं जानता, और समस्त विकल्पोंसे रहित होके स्वरूपको नहीं अनुभवता, तो बतलाइये कि ऐसे जीवके मोह आदिक द्रव्य भावकर्मोका ३२२

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