Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 423
________________ २७६ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला- [अ०३, गा० ३-- रतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणं, एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणत्वात् गुणाढ्यं, सकललौकिकजननिःशङ्कसेवनीयत्वात् कुलक्रमागतक्रौर्यादिदोषवर्जितत्वाच्च कुलविशिष्टं, अन्तरङ्गशुद्धरूपानुमापकबहिरङ्गशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्टं, शैशववार्धक्यकृतवुद्धिविक्लवत्वाभावाद्यौवनोद्रेकक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च वयोविशिष्टं, निःशेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषयपौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमणैरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसाधकमाचार्यं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भासिद्ध्या . मामनुगृहाणेत्युपसर्पन् भूतिगुणेनाढ्यं मृतं परिपूर्णत्वाद्गुणाढ्यम् । कुलरूववयोविसिटुं लोकदुगुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं भण्यते । अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निम्रन्थनिर्विकारं रूपमुच्यते । शुद्धात्मसंवित्तिविनाशकारिवृद्धबालयौवनोद्रेकजनितबुद्धिवैकल्यरहितं वयश्चेति तैः ‘कुलरूपवयोभिर्विशिष्टत्वात्कुलरूपवयोविशिष्टम् । इट्टदरं सम्मतम् । कैः । समणेहिं निजपरमात्मतत्त्वभावनासहितसमचित्तश्रमणैरन्याचार्यैः गुणिं एवंविधगुणविशिष्टं, परमभावनासाधकदीक्षादायकमाचार्यम् । तं पि पणदो न केवलमाचार्यमाश्रितो भवति प्रणतोऽपि भवति । केन रूपेण । पडिच्छ मं हे भगवन् , अनन्तज्ञानादिजिनगुणसंपत्तिकारणभूताया अनादिकालेऽत्यन्तदुर्लभाया भावसहितजिनदीक्षायाः प्रदानेन प्रसादेन मां प्रतीच्छ खीकुरु चेदि अणुगहिदो हैं । वे आचार्य कैसे हैं, कि [श्रमणं] पंचाचारके आचरण करनेमें तथा करानेमें प्रवीण अर्थात् साम्यभावलीन हैं, [ गुणावं] यतिपदवीका आप आचरण करनेमें अन्यको आचरण करानेमें प्रवीण होनेसे गुणोंकर परिपूर्ण हैं, [कुलरूपवयोविशिष्टं ] कुलसे, रूपसे, उमरसे, विशेपता लियेहुए ( उत्कृष्ट ) हैं, और वे [ श्रमणैः ] मुक्तिके इच्छुक महामुनियोंकर [इष्टतरं] अतिप्रिय हैं। भावार्थ-जो उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ है, उसकी सव लोक निःशंक होते हुए सेवा करते हैं, जो उत्तम कुलोत्पन्न होगा, उसके कुलकी परिपाटीसे ही क्रूर भावादिक दोपोंका अभाव निश्चयसे होगा। इससे कुलकी विशेपता लिये हुए ही आचार्य होते हैं, आचार्यके वाहरसे रूपकी विशेषता ऐसी है, कि देखनेसे उनमें अंतरंगकी शुद्ध अनुभव-मुद्रा पायी जाती है, तो भी बाहरके शुद्ध रूपकर मानों अंतरंगकी शुद्धता बतलाई जारही है, इस कारण रूपकी विशेषताकर सहित होते हैं, तथा वय (उमर) करके विशेपता इस तरह है, कि बालक, वृद्ध अवस्थामें बुद्धिकी विकलतासे रहित हैं, और जवान अवस्थामें काम-विकारसे बुद्धिकी विकलता होती है, उससे भी रहित हैं। ऐसी अवस्थाकी विशेपता लिये हुए आचार्य कहे गये हैं, और समस्त सिद्धांतोक्त मुनिकी क्रियाके आचरण करने तथा कराने में जो कभी पीछे दोप हुआ हो, उसको बतलानेवाले हैं, तथा गुणका उपदेश करनेवाले हैं । इसलिये अत्यंत प्रिय हैं। इत्यादि अनेक गुणोंकर शोभायमान जो आचार्य हैं, उनके पास जाकर यह दीक्षा(व्रत)का ग्रहण करनेवाला पुरुष पहले तो नमस्कार करता है, उसके बाद शुद्धात्मतत्त्वके साधक आचार्यको हाथ

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