Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, A N Upadhye
Publisher: Manilal Revashankar Zaveri Sheth

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Page 440
________________ १८.] -प्रवचनसारः २९३ ... . अयताचारः श्रमणः घट्वपि कायेषु वधकर इति मतः । चरति यतं यदि नित्यं कमलमिव जले निरुपलेपः ॥ १८॥ यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध्यदशुद्धोपयोगसद्भावः षदायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्ध्या हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिट्यदशुद्धोपयोगासद्भावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाजलदुर्ललितं. कमलमिव निरुपलेपत्वजन्तुधातेऽपि यावतांशेन खखभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति, न च पादसंघट्टमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा नास्ति । ततः करणाद्वन्धोऽपि नास्तीति ॥ १॥२॥ अथ निश्चयहिंसारूपोऽन्तरङ्गच्छेदः सर्वथा प्रतिषेध्य इत्युपदिशति-अयदाचारो निर्मलात्मानुभूतिभावनालक्षणप्रयत्नरहितत्वेन अयताचारः प्रयत्नरहितः । स कः । समणो श्रमणस्तपोधनः छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो षट्खपि कायेषु वधकरो हिंसाकर इति मतः सम्मतः कथितः । चरदि आचरति वर्तते । कथं यथा भवति । जदं यतं यत्नपरं जदि यदिचेत् णिचं नित्यं सर्वकालं तदा कमलं व जले णिरुवलेवो कमलमिव जले निरुपलेप इति । एतावता किमुक्तं भवति-शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः षड्जीवकुले लोके विचरन्नपि यद्यपि बहिरङ्गद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि हैं-[ अयताचारः ] जिसके यत्नपूर्वक आचार क्रिया नहीं, ऐसा [श्रमणः ] जो मुनि वह [षट्खपि ] छहों [ कायेषु ] पृथिवी आदि कायोंमें [ बन्धकः ] बन्धका करनेवाला है, [इति ] ऐसा [ मतः ] सर्वज्ञदेवने कहा है। [ यदि ] यदि [नित्यं] हमेशः [ यतं ] यति क्रियामें यत्नका [चरति ] आचरण करता है, [तदा] तो वह मुनि [जले ] जलमें [कमलम् ] कमलकी [इव ] तरह [निरुपलेपः] कर्मबन्धरूप लेपसे रहित है । भावार्थ-जिस समय उपयोग रागादिभावसे दूषित होता है, उस समय अवश्यमेव यति क्रियामें शिथिल होकर गुणोंमें यत्न रहित होता है। जहाँ यत्न रहित क्रिया होती है, वहाँ अवश्यमेव अशुद्धोपयोगका अस्तित्व है । यत्न रहित क्रियासे षट्कायकी विराधना होती है। इससे अशुद्धोपयोगी मुनिके हिंसकभावसे बन्ध होता है । जव मुनिका उपयोग रागादि भावसे रंजित न हो, तब अवश्य ही यति क्रिया सावधान होता हुआ यत्नसे रहता है, उस समय शुद्धोपयोगका अस्तित्व होता है, और यत्नपूर्वक क्रियासे जीवकी विराधनाका इसके अंश भी नहीं है। अतएव अहिंसकभावसे कर्मलेपसे रहित है, और यदि यत्न करते हुए भी कदाचित् परजीवका घात होजाय, तो भी शुद्धोपयोगरूप अहिंसकभावके अस्तित्वसे कर्मलेप नहीं लगता। जिस प्रकार कमल यद्यपि जलमें डूबा रहता है, तथापि अपने अस्पृश्य स्वभावसे निर्लेप ही है, उसी तरह यह मुनि भी होता है । इसलिये जिन जिन भावोंसे शुद्धोपयोगरूप अन्तरङ्गसंयमका सर्वथा घात हो, उन भावोंका निषेध है, और

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