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द्वार ११६-११९
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११६-११८ः
मार्गातीत, कालातीत, प्रमाणातीत
205689658000102
0163.85363-20508666003
2010005861853553668506666353
86068688888550586
असणाईयं कप्पइ कोसदुगब्भंतराउ आणेउं । परओ आणिज्जंतं मग्गाईयंति तमकप्पं ॥८१२ ॥ पढमप्पहराणीयं असणाइ जईण कप्पए भोत्तुं । जाव तिजामे उड़े तमकप्पं कालइक्कंतं ॥८१३ ॥ कुक्कुडिअंडयमाणा कवला बत्तीस साहुआहारे । अहवा निययाहारो कीरइ बत्तीसभाएहिं ॥८१४ ॥ होइ पमाणाईयं तदहियकवलाण भोयणे जइणो। एगकवलाइऊणे ऊणोयरिया तवो तंमि ॥८१५ ॥
-विवेचनदो कोश के भीतर से लाया हुआ आहार आदि करना मुनि को कल्पता है। इससे ऊपर का मार्गातीत होने से नहीं कल्पता ।८१२ ॥
प्रथम प्रहर में लाया हुआ आहार आदि तीन प्रहर तक करना कल्पता है। इसके पश्चात् कालातीत होने से नहीं कल्पता ॥८१३ ॥
पन्द्रहवें द्वार में जो कवल का परिमाण बताया गया है, उतने परिमाण वाला आहार करना साधु-साध्वी को कल्पता है। इससे अधिक परिमाणातीत होने से करना नहीं कल्पता। प्रमाणोपेत में भी मुनि को ऊणोदरी के लिये एक, दो, तीन या चार कवल कम ही खाना चाहिये ॥८१४-८१५ ।।
११९. द्वार :
दुःखशय्या
पवयणअसद्दहाणं परलाभेहा य कामआसंसा। पहाणाइपत्थणं इय चत्तारिऽवि दुक्खसेज्जाओ ॥८१६ ॥
-गाथार्थदुःखशय्या-१. प्रवचन की अश्रद्धा, २. परलाभ की इच्छा, ३. काम- मनोज्ञ शब्द, रूपादि की अभिलाषा तथा ४. स्नानादि की इच्छा-ये चार दुःखशय्या है ।।८१६ ॥
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