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द्वार ११२-११३
20556दवावमा
अपिण्डरूप वस्तुएँ१. तृण
६. संथारा २. डगल (पाषाण-खण्ड) ७. पीठफलक आदि (पीठ पीछे रखने का) ३. राख
८. लेप आदि (पात्रा आदि पर करने का या औषध रूप) ४. कफ आदि थूकने का भाजन ९. वस्त्र, पात्रादि सहित शय्यातर का पुत्र या पुत्री दीक्षा ग्रहण ५. शय्या
करे तो दे सकते हैं। शय्यातर की ये नौ वस्तुएँ अपिंडरूप होने से मुनि को लेना कल्पता है।
अशय्यातर-साधु द्वारा वसति का त्याग करने के चौबीस घण्टे पश्चात् वसतिदाता अशय्यातर माना जाता है। जैसे आज दस बजे मुनियों ने किसी श्रावक की वसति का त्याग किया और अन्यत्र चले गये तो दूसरे दिन दस बजे बाद ही पूर्व वसति के मालिक के घर से मुनियों को आहार पानी लेना कल्पता है।
अपवाद-गाढ़तर-यदि कोई मुनि गाढ़ रोगी हो तो सीधा शय्यातर पिंड ग्रहण कर सकते हैं।
अगाढ़तर—यदि कोई मुनि अगाढ़ रोगी हो तो उसके योग्य भिक्षा हेतु पहले तीन बार अन्य घरों में जाना चाहिये। यदि ग्लान योग्य द्रव्य न मिले तो शय्यातर के घर से लेना चाहिये ।
निमन्त्रण–शय्यातर का आहार आदि के लिये अत्यन्त आग्रह हो तो एकबार ग्रहण कर सकते
दुर्लभ द्रव्य आचार्य प्रायोग्य घी, दूध आदि दुर्लभ द्रव्य अन्यत्र न मिले तो आचार्य आदि के लिये शय्यातर के घर से ग्रहण करना कल्पता है।
अशिव-दुष्ट व्यन्तर आदि के उपद्रव के समय अन्यत्र गमन शक्य न हो, अन्यत्र भिक्षा न मिलती हो तो शय्यातर के घर से लेना कल्पता है।
अवमौदर्य-अकाल में अन्यत्र भिक्षा न मिलने पर शय्यातर के घर से लेना कल्पता है।
प्रद्वेष-कारणवश राजा द्वेषी बन जाये और लोगों को साधुओं को भिक्षा देने का सर्वथा निषेध कर दे तो ऐसी स्थिति में गुप्त रूप से साधु शय्यातर के घर से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।
भय-चोरादि के भय में भी शय्यातर पिण्ड लिया जा सकता है ॥८०८ ॥
|११३ द्वार :
श्रुत में सम्यक्त्व
चउदस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा । मइओहिविवज्जासे होइ हु मिच्छं न सेसेसु ॥८०९ ॥
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