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प्रवचन-सारोद्धार
जैसे, महाराष्ट्र में कलाल जाति के लोगों की दुकान पर मदिरा हो या न हो किन्तु ये कलाल हैं, यह बताने के लिये उनकी दुकान पर ध्वजा लगाई जाती है। उस ध्वजा को देखकर भिक्षु उन घरों का त्याग करते हैं, वैसे यहाँ भी समझना ।।८०५ ॥
दोष-शय्यातर पिंड लेने का तीर्थंकरों ने निषेध किया है, उसे ग्रहण करने से आज्ञा भंग रूप दोष लगता है। यह साधु गृहस्थावस्था में राजा था या सेठ था, यह बात जिसे मालूम न हो, साधु को वहीं से भिक्षा (अज्ञात-भिक्षा) लेना कल्पता है। जबकि शय्यातर के साथ सम्पर्क हो जाने से उसे साधु के स्वरूप की पूर्ण जानकारी हो जाती है। ऐसी स्थिति में उसके घर से शुद्ध-भिक्षा नहीं मिल सकती।
• अति परिचय होने से शय्यातर साधु को आधाकर्मी आदि दोष से युक्त आहार दे सकता
• मुनियों को निरन्तर स्वाध्याय आदि करते देखकर शय्यातर उनका भक्त बन कर रसयुक्त
आहार देवे। इससे मुनियों की रसासक्ति बढ़े। शय्यातर के घर से निरन्तर रस-पूर्ण आहार लाकर करने से मुनि का शरीर स्थूल बने, अच्छी उपधि मिलने से परिग्रह बढ़े। शय्यातर के घर से आहार, उपधि आदि ग्रहण करने से कभी शय्यातर के मन में अभाव पैदा हो सकता है कि साधुओं के वसतिदाता को उन्हें आहार, उपधि आदि भी देनी पड़ती है। इस भय से वह साधुओं को वसति देना ही बन्द कर दे ॥८०६ ॥ मध्य के बाईस तीर्थंकरों और महाविदेह के तीर्थंकरों ने आधाकर्मी आहार लेने का निषेध नहीं किया है। (जिसके लिये आहार आदि बनाया हो, उस साधु को वह आहार लेना न कल्पे, किन्तु दूसरा साधु वह आहार ले सकता है)। किन्तु शय्यातर पिंड लेने का तो उन्होंने भी निषेध किया है। अत: मुनि को शय्यातर पिण्ड लेना किसी भी स्थिति में नहीं
कल्पता ॥८०७॥ बारह प्रकार का शय्यातर पिण्ड
जिसे शय्यातर माना हो उसके घर से निम्न बारह वस्तुएँ लेना नहीं कल्पता क्योंकि ये वस्तुएँ शय्यातर-पिण्ड कहलाती हैं। १. अशन
७. कंबल २. पान
८. सुई ३. खादिम
९. वस्त्र ४. स्वादिम
१०. छुरी, कैंची ५. पात्रपोंछन
११. कान-कुचरणी (कान का मैल निकालने वाली) ६. पात्र
१२. नखरदनिका (नख-काटने का उपकरण)
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