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प्रवचन-सारोद्धार
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रात्रि में संथारा अन्य स्थान पर किया हो और कारणवश प्रतिक्रमण अन्य स्थान पर किया हो तो दोनों स्थानों के स्वामी शय्यातर माने जाते हैं। ऐसा प्रसंग सार्थ आदि के साथ जाने पर उपस्थित हो सकता है। अन्यथा भजना समझना चाहिये ।।८०२ ॥
यदि किसी स्थान में रातभर सोये बिना ही रहे हों और प्रतिक्रमण अन्य स्थान में जाकर किया हो तो मूल वसति का स्वामी शय्यातर नहीं माना जाता पर जहाँ प्रतिक्रमण किया हो उस वसति का स्वामी शय्यातर होता है ।।८०३ ॥
कोई गृहस्थ साधु को वसति देने के बाद व्यापारादि के लिये सपरिवार अन्यत्र चला जाये तो भी वसति का शय्यातर वहाँ रहा हुआ भी वही माना जाता है ।।८०४॥
वेषधारी मुनि के भी शय्यातर का त्याग करना चाहिये, भले वह अपने शय्यातर के घर का आहार-पानी ग्रहण करता हो या न करता हो, जैसे शराब की दुकान में शराब हो या न हो तथापि वह दुकान शराब की ही कहलाती है ।।८०५ ।।
शय्यातरपिंड ग्रहण करने से जिनाज्ञाभंग, अज्ञातभिक्षा का अभाव, उद्गमादि दोषों की सम्भावना, आहार की आसक्ति, लघुता, वसति की दुर्लभता अथवा वसति का विच्छेद आदि दोष लगते हैं ।।८०६॥
प्रथम और अन्तिम जिनेश्वर को छोड़कर मध्य के बावीस तीर्थंकरों तथा विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के मुनिओं ने यद्यपि आधाकर्मी भिक्षा अल्प भी ग्रहण की होगी किन्तु शय्यातरपिंड का ग्रहण तो सर्वथा नहीं किया ।।८०७॥
गच्छ की विशालता को देखकर, नवकारसी-पानी आदि के लिये बार-बार जाने से तथा मुनियों को स्वाध्याय आदि करते देखकर आकृष्ट हुआ गृहस्थ (शय्यातर) उद्गम के दोषों से दूषित आहार आदि दे सकता है ।।८०८॥
-विवेचन शय्यातर - शय्या = मुनि को ठहरने के लिये दिया गया आवास ।
तर = उसके द्वारा दुस्तर संसार सागर को तरने वाला अर्थात् जो मुनि को ठहरने के लिये आवास देता है वह ‘शय्यातर' कहलाता है। शय्यातर दो प्रकार का है-() वसति (स्थान) का मूल मालिक, (ii) मालिक द्वारा नियुक्त अधिकारी । इन दोनों के भी दो भेद हैं-(i) एक और (ii) अनेक । पूर्वोक्त चारों पदों के मिलने से चतुर्भंगी बनती है।
(i) एक स्वामी और एक स्वामी तुल्य (ii) एक स्वामी और अनेक स्वामी तुल्य (iii) अनेक स्वामी और एक स्वामी तुल्य (iv) अनेक स्वामी और अनेक स्वामी तुल्य पूर्वोक्त भांगों में से दूसरा, तीसरा भांगा शुद्ध और पहला, चौथा भांगा अशुद्ध है।
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