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प्रवचन-सारोद्धार
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-विवेचनदुःख = दुःखदायक, शय्या = जिस पर सोया जाये। इसके दो प्रकार हैं-द्रव्यत: अमनोज्ञ खाट, पाट पलंग आदि । भावत: अशुभ मन, असाधुता प्रयोजक-विचार । इसके चार भेद हैं:(१) अश्रद्धान--जिनशासन पर विश्वास न होना। (२) परलाभेच्छा—दूसरों के सामने वस्त्र-पात्रादि की प्रार्थना करना। (३) कामाशंसा-मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि की अभिलाषा करना। (४) पहाणाइपत्थण-उबटन, मालिश आदि करने की एवं स्नानादि की आकांक्षा रखना।
ऐसा करने वाला मुनि कभी भी साधु जीवन के सुख का अनुभव नहीं कर सकता अत: ये “दुःखशय्या” कहलाते हैं ॥८१६ ॥
१२० द्वार:
सुखशय्या
सुहसेज्जाओऽवि चउरो जइणो धम्माणुरायरत्तस्स । विवरीयायरणाओ सुहसेज्जाउत्ति भन्नति ॥८१७ ॥
-गाथार्थसुखशय्या-धर्मानुरागी मुनि की सुखशय्या भी चार प्रकार की है-दुःखशय्या से विपरीत आचरण अर्थात् १. प्रवचनश्रद्धा, २. परलाभ की अनिच्छा, ३. काम की अनाशंसा तथा ४. स्नानादि की अनाकांक्षा ये सुखशय्या के चार प्रकार हैं ।।८१७ ।।
-विवेचनसुखशय्या = जिस पर सुखपूर्वक सोया जाये। इसके दो भेद हैं(१) द्रव्यत: = मनोज्ञ खाट, पाट, पलंग आदि । (२) भावत: = जिनधर्म का रागी मन। इसके चार भेद हैं(i) जिन वचन पर पूर्ण श्रद्धा रखना। (ii) दूसरों से किसी प्रकार के लाभ की इच्छा न रखना। (iii) शब्द रूपादि के प्रति अनासक्ति होना। (iv) स्नानादि की इच्छा न करना।
ऐसे मुनि निरन्तर तप-जप-क्रिया-कलाप में मग्न होने से परम सन्तोष और सुख का अनुभव करते हैं, अत: ये सुखशय्या कहलाते हैं ।।८१७ ।।
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