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प्राक्कथन
निर्माणों के द्वारा हम दोनों बंधु रत्नकूट की इस आश्रमभूमि पर वस्तुपालतेजपालवत् महान कार्य जीवन में संपन्न कर के जाएँ . . . ।”
मैं इन दोनों आर्षदर्शक, हितचिंतक पूज्यजनों के ऐसे प्रोत्साहनों से बड़ा ही प्रभावित और आनंदित हुआ। उनमें पंडितजी का ही आशीर्वाद देखा। प्रस्तुत विश्वविद्यालय - पराविद्या-आत्मविद्या प्रधान अन्य जीवनोपयोगी विद्याओं से परिपूर्ण विश्वविद्यालय का प्रारूप तैयार करने बैठा। पत्रसंपर्क कर अहमदाबाद पूज्य पंडितजी से अभ्यासक्रम भी, गहन-परामर्श-अध्ययन-चिंतनद्वारा युगानुरूप दृष्टि से बना लिया। इस में भगवान ऋषभदेव-कथित ७२ एवं ६४ जीवनकलाओं - जीवनविद्याओं के विषय अमृता आत्मनः कला'वत् श्रीमद् राजचंद्रजी-प्रणीत आत्मज्ञान की पराविद्या को प्रथम एवं केन्द्र में रखकर आयोजित किए। महाप्राज्ञ पंडितजी एवं अनुभवज्ञानी सहजानंदघनजी - दोनों की सुभग, समग्र, सर्वस्पर्शा श्रमणधारा के साथ अन्य धाराओं को एवं वर्तमान के अहिंसा एवं जीवनशोधन के प्रयासों-परिबलों को भी इस में सम्मिलित किया गया। दोनों प्रबुद्ध प्राज्ञजनों द्वारा प्रेरित और प्रमाणित यह सर्वकालोपयोगी एवं सब से निराला एवं मौलिक अभ्यासक्रम आज भी मेरी फाईलों में सुरक्षित पड़ा है। अग्रज निर्मित एवं श्री कस्तुरभाई लालभाई प्रमाणित अपूर्व जिनालय प्लान भी। uan thoracos
इस पीठिका, पार्श्वभूमिका के उपरान्त सर्वप्रथम श्रीमद्-वाणी को सर्व भाषाओं में विश्वभर में अनुगुञ्जित एवं प्रसारित करने ‘सप्तभाषी आत्मसिद्धि' के अनुवादन-सम्पादन का गुरुदेव सहजानंदघनजी ने आदेश दिया, जो कि गुजरात में विदुषी विमलादीदी सह पूर्व-निर्धारित परंतु अनारंभित रह गई selected
Works of Srimad Rajachandra',की हमारी ग्रंथयोजना का-सा था। वह कार्य दीदी का संपन्न नहीं हो पाया, परंतु सप्तभाषी आत्मसिद्धि' का यह पावनकार्य तो आरम्भ हो ही गया, उसके अनुवाद आदि के कुछ पृष्ठ गुरुदेव स्वयं देख भी गए, दूर से पंडितजी भी समय समय पर उसमें प्रेरणा भरते रहे . . . बड़ी प्रसन्नता एवं धन्यतासे तब इन दो दो सत्पुरुषों के मार्गदर्शन में यह महत् कार्य गतिशील बना ...
परंतु . . . नियति को कुछ और ही तय करना था ...!
अचानक गुरुदेव सहजानंदघनजी, आत्मा से संपूर्ण आनंदमय रहते हुए भी उदयकर्मवश शरीर से व्याधिग्रस्त हो गए . . . एक प्रातः काल को उनकी गुफा में