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प्रज्ञा संचयन
बेंगलौर और हंपी आकर बसा। श्रीमद्रराजचन्द्र शरण-समर्पित सहजानंदघनजी के चरणों में समर्पित हो गया। उन्होंने भी बड़े ही उल्लास और प्रसन्नता की अमीवर्षा करते हुए मुझे और हमारे सारे परिवार को अपना लिया। श्रीमद्जी की सिद्ध साधनाभूमि इडर पहाड़ पर सुश्री विमलाताई संग उनका प्रारंभिक प्रेरक परिचय तो पूर्वमें मुझे हो ही चुका था।
मेरी शरदपूर्णिमा १९६९ की पूर्वयात्रा के पश्चात् अब मई १९७० में उनकी निश्रा में आ बसने के बाद उन्होंने पूज्य पंडितजी की उपर्युक्त, अभूतपूर्व जैन विश्वविद्यालय-संस्थापना की भावना को बड़े ही प्रसन्न और प्रमोदभाव से ऐसे तो आशातीत कल्पनातीत भाव से स्वीकार कर लिया कि उसमें परमगुरु-संकेत देखकर मैं तो दंग ही रह गया ! अग्रज आश्रमाध्यक्ष पू. चंदुभाई के साथ हुई हमारी इस विषय की प्रथम बैठक में ही उन्होंने परमोदार सम्मति प्रकट कर दी:
"करो, प्रतापभाई ! सार्थक करो महाप्राज्ञ पंडितजी की यह युगापेक्षी विश्वविद्यालय संस्थापना की आर्ष-भावना। आप सरस्वती-पुत्र हो, पंडितजी का आदेश और आशीर्वाद लेकर आए हो, वह एक-न-एक दिन पूर्ण होगा ही। . . . बोलो, इसके लिए आपको कितना धन चाहिए?"
कुछ संकोचवश मैंने उत्तर दिया - “बीस लाख रुपये ...।" .'
"बस, बीस लाख ही? बीस करोड़ क्यों नहीं ? जैन समाज में पैसों की कहाँ कमी है? ... पहले बीस व्यक्ति कार्यकर्ता ले आईये, जो आपके समान समर्पित हों, गांधीविचार और मिशनरी स्पिरिटवाले हों... शेष सब कुछ हो जायेगा ...' आप जो कुछ भी करना चाहें शीघ्र ही आरम्भ कर दीजिए... इस विश्वविद्यालय के द्वारा हमें विश्वभर को वीतराग-वाणी से अनुगुञ्जित कर भर देना है, जो परमकृपालुदेव (श्रीमद् राजचन्द्रजी) के अमृत-वचनों में ही भरी हुई है।" ___इस पर साथ बैठे हुए अग्रज ने भी सम्मति दर्शाते हुए कहा कि “दो लाख रुपये प्रथम मैं ही दे दूंगा, चिंता मत करो और कार्य शुरु कर दो। तुम जैन विश्वविद्यालय का प्रारूप तैयार कर निर्माण की दिशा में आगे बढ़ो। तुम ऐसे बेनमून विश्वविद्यालय का सृजन करो और मैं गुरुदेव-आदेशित निराले ही जिनालय के निर्माण में प्रवृत्त हो रहा हूँ, जिसका प्लान भी बन चुका है। इन दोनों