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* प्रबन्धावलं. *
जगह 'सोलह' हो तो छन्द और समय दोनों के सामंजस्य का सम्भव है । और प्रथम चरण में षष्ठी के अर्थ में जो 'कर' शब्द दिया है वह पिछली परिपाटी को द्योतित करता है। मिश्रबन्धु सं० ११३७ में नन्द कवि का होना लिखते हैं, परन्तु उन्होंने उसके किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं किया है । प्रसिद्ध चन्दबरदाई से पूर्व २-३ मुसलमान कवि और एक चारण कवि का उल्लेख किया है परन्तु लिखा है कि उनके ग्रन्थ देखने में नहीं आए। कवि चन्दबरदाई को कविता का समय सं० १२.५ से १२४६ तक माना जाना चाहिए और हिन्दो की उत्पत्ति का समय सं० ७०० से अनुमान किया गया है । तब से चन्दबरदाई पर्यन्त साढ़े पांच सौ वर्ष के लगभग, एक बड़ा विस्तृत काल है। न तो इस समय का पूर्ण इतिहास और न कोई विशेष उल्लेख योग्य हिन्दी ग्रन्थ उपलब्ध है । यदि निष्पक्ष होबर सोचा जाय तो संवत् सात सौ आठ सौ में हिन्दी के ग्रन्थों को रचना होना असम्भव ज्ञात होता है, एकारक किसी भाषा को उन्नति न हुई है और न हो सकती है ।
एकादश शताब्दो में जब विदेशी लोगों के आगमन का प्रारम्भ हुआ और देश-जय के पश्चात् यवन लोगों को यहां स्थिति हुई तब से हो भाषा के बदलने और संस्कृत की चर्चा का ह्रास होने से कत्रियों को प्राचोन हिन्दी में रचना करने के उत्साह का आरम्भ हुआ। जहां तक इतिहास और ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनसे द्वादश शताब्दी से ही हिन्दो की उत्पत्ति का समय मान लेना अनुचित न इगा। प्राचीन हिन्दी साहित्य की वही बाल्यवस्था है । जैसे अपने को उस अवस्था की केवल दो चार बड़ी बड़ी घटनाओं का स्मरण रहता है, उसी प्रकार उस समय में न तो बचना का हो सम्भव है और न अधिक उपलब्ध हैं । अवस्था का अर्थात् द्वादश से चतुर्दश शताब्दी तक का इतिहास
अधिक ग्रन्थों को
इस कारण उस
क्षेत्र में सूत्रित का प्रावांन जेन साहित्य में हिन्दी के स्थान का
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