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प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य
जैनियों के साहित्य का भण्डार पूर्ण है। मैं केवल प्राचीन शिलालेख आदि की खोज में ही लगा रहता है। साहित्य के विषय में एक प्रकार से मन है। इस विषय पर लिखने के लिये जैन साहित्य का मान पूरा पूरा चाहिए। अतएव प्राचीन साहित्य के ज्ञान की अपूर्णता और तत्सामयिक इतिहास के ज्ञान की संकीर्णता के कारण मेरे विचारों में भ्रम होना संभव है। मैं हिन्दी को और जैन साहित्य को पृथक् पृथक् नहीं समझता है। हिन्दी साहित्य में जैन साहित्य का स्थान उच्च है। सब को विदित है कि प्राकृत में ही जैनियो के मूल सूत्र सिद्धान्त रचे हुए हैं। प्राकृत और हिन्दी के सम्बन्ध में इतना ही कहना यथेष्ट है कि प्राकृत का रूपान्तर हो हिन्दी है अर्थात् हिन्दी का प्रारुत ही जन्मदाता है। सब विद्वानों को हात है कि भारत में विदेशी राजाओं के आने से देश की भाषा पर भी पूग असर पहुंचा। फ़ारसी अरवी का प्रभाव बढ़कर उस समय को प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएं हो हिन्दी बन गई। क्रमशः प्राकृत शब्दों का व्यवहार घटते घटते प्राकृत का अस्तित्व लोप होने लगा। पुनः उर्दू के आविर्भाव के साथ हिन्दी की दशा और भी विगहने लगी। उस समय हिन्दी प्रेमी सुधार को चेष्टा करने लगे मोर लुप्त. प्राय प्राकृत के स्थान में संस्कृत शब्दों के तत्सम रूपों का यथायथ हिन्दी में अधिक होना आरम्भ हुआ। प्राचीन जैन साहित्य से हिन्दी या क्रमकार अत्युत्तम इतिहास बन सकता है।
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