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पार्श्वनाथ और शंकरनाथ
एक बार मुझे लखनऊ के स्वर्गीय लाला चुन्नीलालजी साहब की हवा से एक प्राचीन कोष्टक ( चार्ट ) देखने को मिला था । यह कोष्टक बहुत बड़ा कई फीट लम्बा था और उसमें जैन धर्म के चौबीसों तीर्थंकरों के १७२ वोल क्रमानुसार लिखे हुये थे । कोष्टक में खाने बनाकर प्रत्येक तीर्थंकर के आविर्भाव से लेकर उनके मोक्ष प्राप्ति के समय तक की गणना और बातें दिखाई गई थीं। इन खानों में से एक खाने में प्रत्येक तीर्थंकर के समय के प्रचलित धर्म दिखाये गये थे । जैन धर्म का दूसरा शैव धर्म का और तीसरा सांख्य का नाम था ।
इससे प्रकट होता है कि जैनियों के मतानुसार भी शैव धर्म अत्यन्त प्राचीन है। शिव या महादेव की पूजा इस देशमें कब से हो रही है, इसका पता इतिहास भी नहीं बता सकता। 'कल्याण' के 'शिवाङ्क' मैं प्रकाशित 'बृहत्तर भारत में शिव' नामक प्रवन्ध से प्रकट होता है कि महेनजोदड़ो की खुदाई बाद से इतिहासज्ञ यह मानने लगे हैं कि भारत में आर्यों के आगमन के पहले से ही शिव पूजा प्रचलित थी । दक्षिण भारत में ईसा से दो शताब्दी पूर्व की प्रतिष्ठित शिव मूर्त्ति आज भी विद्यमान है। कुशाण और गुप्त काल की अनेक शिव मूर्तियों का पता चलता है। कुशाण युग के सिक्कों पर भी शिव चित्र मिलता है I
शिब- पूजा भारत के उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम प्रत्येक प्रान्त में पाई जाती हैं। इतना ही नहीं, वरन् भारत के बाहर सुमात्रा जाभा, वाली, कम्बोडिया, मलाया आदि स्थानों में भी, जहां जहां
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