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* प्रबन्धावली :
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हेर फेर हैं । परन्तु किसी में भी मुझे यह नाम मिला नहीं । यति श्रीपालजी मे “जैन सम्प्रदाय शिक्षा" नाम की जो पुस्तक छपवाई है उसके ६८५ पृष्ट में मध्यप्रदेश ( मालवा ) की बारह न्यातों में संख्या ६ में " जैसवाल" नाम है और उसी पुस्तक के ६८७ पृष्ठ में चौरासी न्यात और उनके स्थानों के वर्णन में ३२ संख्या में “जैसवाल गढ़" से “जैसवालों” की उत्पत्ति लिखी है । उसीके ६८८ पृष्ठ में पुन: दक्षिण प्रान्त की ८४ न्यातों के नामों में संख्या ५ में " जैसवाल” नाम पाया जाता है । मुझको जोधपुर ( मारवाड़) में वहां के यतियों के पास जो ८४ जति श्रावकों के नाम मिले हैं उसमें नं० १६ में “जायलावाल” नाम है । इस विषय पर जितनी हस्तलिखित या छापे की पुस्तकें. हमारे दृष्टिगोचर हुई हैं किसी में भी " जैसवाल" जैनियों का क्षत्री या राजपूत से जैनी होना नहीं पाया गया है । यदि कोई महाशय यह सोचें कि हमारा स्थान क्षत्रियों से उठा कर एक क्रम नीचे वैश्यों में करना ठीक नहीं उनसे मैं विनय पूर्वक कहना चाहता हूं कि अपने जैनियों में हिन्दुओं की भांति वर्णभेद नहीं माना गया है । श्री ऋषभ देव आदि तीर्थंकरों के समय से ही सब मनुष्य एक थे । पश्चात् “असिजीव” “मसिजीव" आदि अर्थात् क्षत्रिय वैश्य कहलाने लगे 1 तथा अपने जैनियों के धर्मानुसार "जातिमद" "कुलमद" आदि पापों की गणना में है । इस कारण सुज्ञ पाठक तत्व को अन्वेषण करते हुये उच्च नीच का विचार न लावेंगे। मूल विषय पर ध्यान देने से यह सम्भव जान पड़ता है कि जैसे ओसिया से ओसवाल, भीनमाल से श्रीमाल, खंडेले से खंडेलवाल, बघेरा से बघेरवाल आदि हुये हैं उसी तरह चाहे मालवा चाहे राजपुताना के जैसलगढ या और कोई उसी तरह के नाम के स्थान से " जैसवाल" शब्द की उत्पत्ति हुई हो परन्तु दक्षिण के जैसने से होना कदापि सम्भव नहीं है। मुझे जहां तक ज्ञात है वर्त्तमान या प्राचीन काल में दक्षिण के किसी भी स्थान के नाम के अन्त में "नेर” नहीं पाया जाता।
राजपुताना में ही ऐसे
नाम पाये जाते हैं जैसे “गजनेर” “बीकानेर” इत्यादि ।
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