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* प्रबन्धावली*
* १६५ नामक जो मराठी भाषाकी सचित्र पुस्तक प्रकाशित हुई है, उसमें ६३ आसनों के नाम और चित्र पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि आसनों की संख्या चौरासी से अधिक पाई जाती है, तो भी प्राचीन कालसे आसन-भेदके साथ यही संख्या लगा दी गई हैं।
यह चौरासी का अङ्क चौदह की संख्या को छः गुणा करने से भी होता है। शिक्षा-कल्प व्याकरणादि चौदह प्रकार की विद्या, खड्गस्त्र, स्त्री-रत्नादि चक्रवर्तियों के चौदह रत्न तथा देवताओं द्वारा समुद्रमथन से प्राप्त लक्ष्मी कौस्तुभादि चौदह रत्न, ऐसे ऐसे चौदह भेदवाले छः विषयों की समष्टि भी चौरासी का अङ्क हो जाता है।
जौहरी लोग जिन-जिन रत्नोंको संग कहते हैं, उनकी संख्या भी वे चौरासी बताते हैं, परन्तु यह संख्या कल्पित मालूम होती है। पाठकों को यहां एक और बातकी ओर ध्यान दिलाता हूं कि जौहरी लोग चौरासी के फेरमें पड़ जानेके भयसे इस चौरासी संख्या से इतने सशंकित रहते हैं कि अपने व्यापारादि में इस संख्या का व्यवहार कदापि नहीं करते। अर्थात् यदि चौरासी रुपये के भावमें उन लोगों से कोई सौदा मांगा जाय, तो स्वीकार नहीं करते ; बल्कि पौने चौरासी में बेखने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे न तो वजनमें कदापि ८४ रत्ती माल बेचते हैं, और न किसी पुड़िये में ८४ नीने रखते हैं।
चौरासी की संख्याके विषय में 'हिन्दी-विश्वकोष' सप्तम भाग पृष्ट ५८७ में जो वर्णन है, उससे पाठकों को ज्ञात होगा कि भारतवर्ष के कई देशोंमें ऐसे नाम के परगने और तालुके मिलते हैं, जिनकी सृष्टि चौरासी ग्रामोंको लेकर ही हुई होगी। नत्य के समय पैरमें बहुतसे घुघरू बांधे जाते हैं, संख्याधिक्य के कारण उनको भी चौरासी कहते हैं।
ब्राह्मण वर्णमें नाना कारणों से सैकड़ो भेद विद्यमान हैं। पाठकों में से बहुत से सजन 'चौरासी ब्राह्मण' ब्राह्मणों को एक जाति-विशेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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