Book Title: Prabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Author(s): Puranchand Nahar
Publisher: Vijaysinh Nahar

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Page 170
________________ * प्रबन्धावली* * १४३. सजनों! अपने जैनी भाई अधिकतया व्यापार में ही लगे रहते हैं। धार्मिक विषय को सोचने का अवसर भी कम रहता है इसीलिये केवल एक श्रद्धा अथवा विश्वास पर ही कुल क्रमागत अपने अपने श्रावक धर्म को ठीक मान लेते हैं। ऐसे धार्मिक विषयों पर धर्माचार्यों में मतभेद होकर वही बला समाज के शिर पर आ जाती है तो वही अग्निकुण्ड हो जाता है। पाठक यह न समझें कि ओसवाल समाज में जितने भिन्न भिन्न धार्मिक मत देखने में आते हैं वे सब एक हो जाय, कारण ऐसा होना असंभव सा है। परन्तु धार्मिक भेदों को केवल विश्वास की वस्तु समझ कर अपने सम्प्रदाय में सन्तुष्ट रहें, दूसरे सम्प्रदायवालों से क्लेश न बढ़ावें और इन मतभेदों से प्रचंड अग्निकुड न वनावें तो समाज की रक्षा संभव है। ऐसा होने से क्रमशः एकता भी बढ़ती जायगी, जैन समाज अखन्ड रहेगा और साथ साथ ओसवाल समाज भी उच्च कोटि की दिखाई देगी। __ मैं ने समाज के अग्निकुन्ड के विषय में अपना विचार प्रगट किया है। यदि प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त भारत का इतिहास देखा जाय तो यहां के प्रायः सभी समाज वालों में किसी न किसी समय उनके धार्मिक विषयों ने अग्निकुन्ड रूप में परिणत होकर उन्हे अगणित हानि पहुंचाई थो। समय समय पर भारतीय समाज को यहो धार्मिक वादानुवाद किस प्रकार छिन्न भिन्न करता रहा इसके दृष्टान्त वर्तमान काल तक यथेट मिलेगें। आज भी हिन्दू समाज में मत-मतान्तर के लिये परस्पर में किस प्रकार फूट देखने में आती है इसके वर्णन की आवश्यकता नहीं। समाज के कितने उत्कृष्ट जीवन इसी प्रश्न को हल करने में नष्ट हो गये। बहुत सी आर्थिक हानि के साथ परस्पर में क्लेश बढ़ते हुए इसी अग्निकुन्ड में अच्छे अच्छे समाज भी नष्टप्राय हो रहे हैं। एक भारतवर्ष ही क्या, अन्यान्य देशों के इतिहास में भी यही सत्य स्पष्ट मिलता है। यूरोप में जिस समय रोमन केथोलिक ( Roman Catholic) धर्म पर, उनकी पोपलीला पर, 19 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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