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जैन धर्म में शक्ति-पूजा
शक्ति की उपासना का यदि वाह्य रुप लिया जाय तो वह जैन-धर्म में नहीं है। हिन्दु अथवा बौद्ध-तन्त्रों में शक्ति का जो स्वरुप मिलता है वह जैन-धर्म के सिद्धान्तों में नहीं पाया जाता। आत्मा की जो सहज स्वाभाविक शक्ति है और जो अनन्त कही गयी है, उसकी अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कोई दूसरी स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। इसके तीन स्वरूप हैं-सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। और इन तीनों की अभिव्यक्ति के प्रकार भी असंख्य हैं। यहो जब अलो. किक रूप धारण कर लेती हैं तब उन्हें शास्त्रीय भाषा में 'लब्धि' अथवा चमत्कार कहते हैं।
हिन्दू धर्म के अनुसार 'शक्ति' ईश्वरत्व का सर्वोच्च स्वरुप है-इसे ही प्रकृति का व्यक्त-साकार स्वरुप समझिये अथवा ईश्वर की सर्व व्यापक शक्ति समझिये। शक्ति-उपासना के विधि-विधानों का निर्माण तो बहुत पहले ही हो चुका था और अथर्ववेद के समय से ही हम शाक्त-धर्म अथवा आगम-सम्प्रदाय का आविर्भाव पाते हैं। धीरे-धीरे हिन्दू-धर्म से यह मत बौद्ध-धर्म में प्रवेश कर गया और आगे चलकर कुछ अंशों में जैन धर्म के मतावलम्बियों पर भी इसने कुछ प्रभाव डाला। तन्त्र-शाल के सिद्धान्तों तथा साधन का इतना अधिक प्रचार हुआ कि प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदायों पर इसका प्रभाव पड़े विना न रहा। परन्तु जैन धर्ममें 'आगम-सम्प्रदाय' जैसी कोई वस्तु नहीं है।
हिन्दू-धर्म तथा बौद्ध-धर्म में पुरुष और स्त्री शक्ति का 'महाशक्ति'
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