________________
*४४ *
● प्रबन्धावली
कहूं कि मेरा यह लेख, जो कि 'महिलाङ्क' के लिये ही लिख रहा हूं, यह अपने समाज की कुछ इमो गिनी स्त्रियों के अतिरिक्त बहिनों की अपेक्षा भाई ही अधिक संख्या में पढ़ेंगे तो असत्य न होगा। परन्तु यदि अपने प्राचीन भारत की स्त्रियों की उन्नत दशा से वर्त्तमान भारत की स्त्रियों की शिक्षा की तुलना की जाय तो हताश होना पड़ता है । चाहे हम भारतीय वैदिक युग को देखें, चाहे जैन युग अथवा बौद्ध युग को देखें, भारतवर्ष में विद्यावती और कलावती स्त्रियां वर्त्तमान थीं ।
समाज एक जीती जागती वस्तु है; जैसे जीव देह का कोई अंश अपुष्ट रहे तो उसका प्रभाव और २ अङ्गों पर पड़ता है उसी प्रकार समाज का अङ्ग दुर्बल अथवा अपूर्ण रहे तो उस समाज की उन्नति की आशा करना निरर्थक होगा । पुरुषों की तरह स्त्रियां भी समाज का भङ्ग है और उनका स्थान भी पुरुष के बराबर है । विद्वानों ने स्त्रियों को अर्द्धाङ्गिनी की आख्या दी है । यदि आधा अंग ही निकम्मा रहे तो कोई भी कार्य पूर्ण सफलता से होना सम्भव नहीं है । यद्यपि अपने भारतवासी सभी समाजवाले अपनी २ उम्नति के पथ में और जातीय - जीवन के सुधार में लगे हैं परन्तु इनमें से इने गिने कुछ समाजों के अतिरिक्त और समाज और खास कर अपना ओसवाल समाज स्त्री शिक्षा के विषय में बहुत पीछे रहा हुआ है । अद्यावधि इस विषय का कोई सराहनीय प्रवन्ध नहीं है और इसी कारण लमाज कोई विशेष उल्लेखनीय उन्नति नहीं कर सका है। जिस प्रकार पुरुषों में शिक्षा का भारम्भ हुआ है उसी प्रकार महिलाओं के लिये भी समयानुकूल प्रबन्ध होना चाहिये । खेद है कि अभी तक भारत के किसी प्रान्त में अपने समाज में स्त्री शिक्षा का प्रबन्ध नहीं है । द्रम्य, क्षेत्र और काल की कदापि उपेक्षा करना उचित नहीं। अपने को मर्यादा के नाम पर अथवा हठवाद से, आगे की कुप्रथा अथवा समय विरुद्ध आचार व्यवहार को लकीर के फकीर की तरह लेकर बैठे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com