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* प्रबन्धावली.
धर्म के नाम पर मुसलमान लोगों ने कई बार संग्राम छेड़ दिया था। मैं कुरान शरीफ से परिचित नहीं हूं परन्तु सम्भव है उनके धर्मप्रवर्तक महम्मद साहब का ऐसा उपदेश न होगा। दूसरों के धर्मका नाश करके अपने धर्म का प्रचार करना दूसरी बात है, परन्तु मनुष्य होकर इस प्रकार दूसरे मनुष्यको कष्ट पहुंचाना धर्म नहीं हो सकता। अपने धर्मानुयायियों की संख्या वृद्धि करने को धर्म समझना स्वाभाविक है, परन्तु वे लोग इस विचार को कार्यरूप में लाने के समय सीमा के बाहर जाते थे। जैन धर्म के तत्व में अन्य धर्म को अथवा अन्य धर्मावलम्बियों को 'न निविजई न बदिजई' यहाँ तक कि निन्दा फरना मना है। धार्मिक विषयों में ऐसी उदारता अवश्य होनी चाहिये । हमारे तीर्थंकर जातिनिर्विशेष से उपदेश दिया करते थे। जैनियोंके धर्मग्रन्थ से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के 'समवसरण' में अर्थात् जिस स्थान से तीर्थकर धन्मोपदेश देते थे वहां पर सब जीवोंका-पशुपक्षियों तक का भी स्थान रहता था और देवता से लेकर तिर्यंच तक सर्व प्रकार के प्राणी अपनी अपनी भाषा में भगवान का उपदेश समझ लेते थे। इस अलौकिक शक्ति को तीर्थकरों का 'अतिशय' बताया गया है।
जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी को हुए आज २५ शताब्दी हो चली तो भी जैनियों में वही उदारता देखने में आती है। इधर कई शताब्दी तक मुसलमान सम्राटगण भारत के शासक रहे। यहाँ के निवासियों से उलोगों का राजा प्रजा का सम्बन्ध हुआ था। ये लोग हिन्दू धर्मावलम्बियों को समय समय पर उत्पीड़ित करते रहे। देखिये - हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थस्थान 'सोमनाथ' जो भारत के सुदूर सौराष्ट्र प्रांत में है वहाँ महम्मद गजनी ने जिस प्रकार मूर्ति को नष्ट किया था वह कथा भारत के समस्त इतिहास की पुस्तकों में वर्णित हैं। शताब्दियों तक अनाचार होता रहा और रही सही लगभग १७ वीं शताब्दी में 'काला पहाड़ में बिहार और बंगप्रान्त
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