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धार्मिक उदारता
संसार में धर्म ही एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी सृष्टि सब धर्मवाले अलौकिक बताते हैं। कोई इसको अनादि कहते है, कोई स्वयं ईश्वर का वचन अथवा कोई ईश्वरतुल्य अवतार के कहे हुए उपदेश और नियमादि के पालम को ही धर्म कहते है। चतुर्दश रज्ज्वात्मक जोरलोक में जितने भी जीव हैं सुखप्राप्ति के लिये सब लालायित रहते हैं। जीव की मुक्ति अर्थात् निर्वाण के अतिरिक्त जितने प्रकार के सुख हैं सब सामयिक तथा निर्दिष्टकाल और परिमाण के होते हैं । 'धर्म' शब्द के अर्थ को देखिये तो यही ज्ञात होगा कि यह ऐसी वस्तु है कि जो जीव को दुःख में पड़ते हुए से बवावे । जो अपने को कष्ट से रचावे और सुख की प्राप्ति करावे ऐसी वस्तु को कोन नहीं चाहता ? सारांश यह है कि किसी न किसी प्रकार का 'धर्म मनुष्यमात्र को चाहिये। चाहे उनका धर्म सनातन हो, चाहे जैन, चाहे बौद्ध, वाहे ईसाई हो, चाहे वे मुसलमान हों, चाहे नास्तिक हों, उनको किसी न किसी धर्म की अथवा किसी महापुरुष के चलाये हुए मत की दुहाई देनी पड़ती है। जिस प्रकार समाज में चाहे वह गरीब हो चाहे सेठ साहूकार अथवा राजा महाराजा हो सामाजिक दृष्टि से सबों का दर्जा एक है, उनमें कोई बड़ा छोटा नहीं समझा जाता उसी प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी एक ही धर्म के पालनेवाले सालोगों को गणना एक ही श्रेणी में होती है। परन्तु अपने अपने धर्मवाले उनको धार्मिन दष्टिकोण से दूसरे धर्मानुयायियों को घृणा के भाव से देखते हैं। इतिहास कहता है कि
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