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* प्राधावली. थी और धर्म सम्बन्धी आध्यात्मिक विचार पूर्ण उन्नति लाभ कर चुके थे। प्रचलित धर्मोंके विरोधीगण बहुत बड़ी संख्यामें उस समय देश-देशान्तरों में भ्रमण कर रहे थे और सम्पूर्ण रूपसे संसार त्यागके गुणागुण के निर्णय की वर्वा जोरों पर थी। भगवान् महावीर ने भी सर्व त्यागी होकर अर्थात् अपने एक मात्र वस्त्र का भी त्याग कर उस समय के आदर्श त्याग की उग्रता को दिखाया था। सम्भवतः समी वस्त्रों के त्याग का नियम उन्होंने अपने समकक्ष उच्च श्रेणी के जैन साधुओं के लिये ही निर्धारित किया था। उन्होंने किसी युग विशेष अथवा समस्त जैन साधुओं और साध्वियों के लिये इस प्रकार से वस्त्र त्याग का समर्थन नहीं किया था, तो भी दिगम्बर मतावलम्बी साधुगण न मालूम क्यों इस समय भी उलङ्ग रहते हैं। इस प्रकार विगम्बर लोगों द्वारा प्राचीन जैन सूत्रादि की अवहेलना कर नवीन जैनशास्त्र और इतिहास की रचना करने के फलस्वरूप मूल जैन सिद्धान्त, प्रकृत जैन धार्मिक तत्व तथा इतिहास में जो कुछ परिवर्तन हुआ है उसकी विस्तृत व्याख्याकर लेख के कलेवर को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं। दो एक दृष्टान्त हो इसके लिये पर्याप्त होंगे।
दिगम्बर सम्प्रदायवाले स्त्रियों के मुक्ति के अधिकार को नहीं मानते, किन्तु मौलिक जैन सिद्धान्त की दृष्टि से स्त्री-पुरुषों की आत्मा में कुछ विभिन्नता नहीं है। आत्मा अनन्तबली है। वह केवल कमवशात् स्त्री या पुरुष रूप में जन्म ग्रहण करती हैं। अर्जित कर्मों के क्षय हो जानेसे मुक्ति प्राप्त होती है इसमें जाति अथवा लिङ्ग भेद कुछ भी बाधक नहीं। श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले इस अनादि और प्राचीन जैन सिद्धान्त को मानते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से मुक्ति का अधिकार है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायवालों में इसी प्रकार के और भी अनेक भेद देखने को मिलेंगे।
दिगम्बर सम्प्रदायवाले चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीरखामी को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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