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* प्रबन्धावली * था। यह घटना श्वेताम्बरी लोगों के प्रसिद्ध कल्पसूत्र नामक ग्रन्थ में सविस्तार वर्णित है। इसी दृश्य की एक सुन्दर भास्कर शिला मथुराके कांकाली टीले से प्राप्त हुई है। पाठक विंसेट स्मिथकी 'जैनस्तूप एन्ड अदर एन्टीक्वीटीज आफ मथुरा' Vincent Smith's Jaina Stupa and other Antiquit es of Mathura नामक पुस्तकके २५ वें पृष्ठ में इसे देख सकते हैं। लिपितत्त्वविशारदों ने इस बातको प्रमाणित किया है कि उक्त शिला लेख ई० सन् से एक शताब्दी पूर्व से भी कुछ पहलेका है। दिगम्बर सम्प्रदाय के किसी ग्रन्थ और उन लोगों द्वारा रचित महावीर स्वामी की जीवनी में इस प्रकार को किसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता। वे लोग इस गर्भापहारकी आख्यायिका पर भी विश्वास नहीं करते। इससे यह सिद्ध होता है कि दिगम्बर ग्रन्थों की अपेक्षा श्वेताम्बर प्रन्थ अधिक प्रावोन हैं और इनके विचार और भी पुराने हैं।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता और दिगम्बर सम्प्रदाय की अर्वाचीनता के सम्बन्ध में और भी एक उल्लेखनीय विषय पाठकों के समक्ष रख मैं इस निबन्ध को समाप्त करूंगा। जैन तीर्थंकर न केवल स्वयं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, बरन् वे तीर्थ अर्थात् संघोंकी स्थापना भी करते हैं। प्राचीन जैन सिद्धान्तानुसार ये तीर्थ अथवा जैन संघ चार प्रकार के होते हैं। बौद्ध धर्म में भी भगवान बुद्ध देवने संघ की स्थापना की थी। जैन संघ के साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये चार भेद हैं। जैन ग्रन्थोंमें वर्णित चउविह संघ अर्थात् चारों प्रकार के संघों की, प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीरतक प्रत्येक तीर्थंकर ने अपने अपने अभ्यु. त्थान कालमें इसो प्रकारसे स्थापना की थी। जैन साधु अर्थात् पुरुष संसारत्यागी संन्यासी, साध्वी अर्थात स्त्री संसारत्यागिनी संन्यासिनी, श्रावक यानी जैन धर्मोपासक पुरुष गृहस्थ और श्राविका
अर्थात् जैन धर्मोपासिका स्त्री गृहल इन चार प्रकार के संघों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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