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जैन जाति का आधुनिक बंधारण दानि कारक है या लाज दायक ?
कुछ समय हुआ कि “श्वेताम्बर जैन " ( भा० ४ संख्या ३६ ) में मुनि महाराज श्री विद्याविजयजी का “जैन जाति” शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। आपने इसमें जैन जातियों के सामाजिक संकुचित भावों को विशद रूप से दिखलाया है। आपके विचार में इसी कारण जाति संख्या घट रही है। आप प्रश्न करते हैं "जैन जाति का आधुनिक बंधारण जैन धर्म और जैन समाज को हानिकारक है या लाभकारक ?” और प्रत्येक जैनियों को खास कर जैन नेताओं को इस प्रश्न पर विचार करने के लिये कहते हैं। पश्चात् आपने विद्वत्ता के साथ वर्त्तमान जाति बंधारण से समाज और धर्मपर जिस प्रकार अनिष्ट हो रहा है वे बड़ी सुन्दरता से दिखालये हैं । परन्तु मैं समझता हूं कि समाज की यह हानियां जाति बंधारण के लिये नहीं आरम्भ हुई हैं। धार्मिक बंधारण, धार्मिक उपदेशकों और आचार्यों के मतभेद ही इनका मूल कारण हैं। यदि जैन धर्म केवल आचार्यों पर निर्भर न रहता तो जाति बंधारण की कदापि ऐसी सृष्टि नहीं हो सकती। यदि वीर परमात्मा की वाणी सुनने के लिये केवल उन लोगों के मुख कमल की तरफ ताकना न पड़ता, तो संभव है कि " जैन जाति" के वर्त्तमान बंधारण में जिस कारण विशेष हानि उपस्थित है उसे देखने का अवसर न मिलता । यदि धार्मिक विषयों में मतभेद न रहे, यदि धर्म का समाज पर पूर्ण शासन रहे तो समाज में अथवा जाति में मनमाने बंधारण होने की संभावना नहीं रहती । अत: चाहे
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