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* प्रबन्धावली *
का विषय है। प्रस्तुत पुस्तिका का यह निबन्ध ई० रोजेन्थल एफ० आर० ओ० एस० ( E.Rosenthal F. R. G. S. ) महोदय का लिखा हुआ है। इस देश में पहुंचते हो यदि विदेशियों को इस धर्म की प्राचीनता का भाव इस प्रकार विपरीत हो जाय तो वह शीघ्र दूर होना कठिन होगा। आप लिखते हैं कि ये दोनों याने बुद्धदेव और महावीर हिन्दूधर्म के संस्कारक थे, ध्वंसकारक न थे। पर'तु यह युक्ति भी असत्य है। जैनधर्म के विचार स्वतंत्र हैं, वैदिकधर्म का रूपांतर नहीं है बल्कि स्याद्वादरूपी पक्की नींव पर अवस्थित है। बुद्धदेव के विवार भी वैदिकधर्म के संस्कृत रूप में नहीं हैं। आप ने भी स्वतंत्र क्षणभंगुर मत पर अपना धर्म विचार फैलाया था। जैनतत्त्व पर लेखक महोदय को धारणा यह है कि जैन लोग तिर्यंच और वनस्पति में जीव ( आत्मा ) मानते हैं। यह विचार असम्पूर्ण है। जैनधर्म के तत्त्वों से यदि वे परिचित होते तो इस के जीव विचार भी इस प्रकार अपूर्ण नहीं लिखते। जैन लोग तिर्यंच और वनस्पति के अतिरिक्त जल, अग्नि, वायु पृथ्वी में भी एकेन्द्रीय जीव होना मानते हैं। लेखक आगे चल कर यह विचार प्रगट करते हैं कि जैन लोग हवा के प्रतिकूल नहीं चलते शायद ऐसा करने से उम के मुखविवर में कीट प्रवेश न कर जाय और इसी कारण वे लोग पानीय जल को भी तीन पार छान कर व्यवहार में लाते हैं। पाठक सोचें कि जैनियों के नित्य नैमेत्तिक आचारों पर अजैन लोग किस प्रकार कटाक्ष करते हैं इस का मूल कारण जैन धर्म के विषय में उन लोगों की अज्ञानता है।
इसी प्रकार हाल में ही 'इण्डियन स्टेट रेलवे मेगजिन' ( Indian State Railway Magazine ) जुलाई १९३० वर्ष ३ संख्या १० पृ० ७८८ में भी मैसूर अंतर्गत श्रावन वेलागोला के जैन मूर्तियों का एक प्लेट प्रकाशित हुआ है वह दिगम्बर जैन मूर्तियों का है परंतु , उंहें शिव की मूर्ति बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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