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* प्रवन्धावली
मैं अब बम्बई में था, सुना कि परस्पर में समझौते के लिये दोनों पक्ष से निर्दिष्ट संख्यक मेम्बर चुनाव होकर कलह का भन्त करेंगे । ऐसे सरल प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा भा होती रही परन्तु यहां तो रोग दूसरा ही था, कोई आशाप्रद शांति मार्ग दिखाई न पड़ा। देखिये ! आज सभो समाज, सभी धर्मवाले 'यात्रा बाक्यं प्रमाणम्' का हठ छोड़ कर उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। चाहे किसी स्थान के कोई साधर्मो बन्धु अथवा किसी गच्छ के कोई भी आचार्य, किसी भी जैनागम के कोई भी मूल या टीकाओं की ओट में समय के विरूद्ध कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यदि किसीको इस सिद्धान्त के विपरीत विश्वास हो तो उनका भ्रम है। ये धोखा खांयगे । इस विषय पर एक ही सिद्धान्त को स्मरण रखिये कि समय कभी भन्याय का श्रोत नहीं बहाता । जिस समय लोग अपना २ कर्त्तव्य समझेंगे, दूसरों के हकों पर धाषा नहीं डालेंगे, स्निग्धमस्तिष्क से जनता का मूल सिद्धान्त भाखें खोल कर देखेंगे तो हस्तामलकवत् स्वयं शान्ति हो जायगी, पुनः पूर्ण शक्ति और बल प्राप्त होगा। यह समय भविष्य के अन्धकार में है। यदि वर्त्तमान में रोग की अवधि दीर्घव्यापी होगी तो न जाने दिनोदिन कैसे २ नये उपसर्ग खड़े होते जायेंगे । नये २ स्थानों में भा विकट स्थिति दिखायी देगी और समझौते की बैठकों का कोई भी फल न होगा और जब भवधि के अन्त का समय समीप रहेगा उस समय अनायास ही पूर्ण शान्ति प्राप्त हो जायगी ।
अन्त में परमात्मा से प्रार्थना है कि श्रीसंघ की ऐसो वर्त्तमान संकटमय समस्या के समय पारस्परिक ईर्षा और द्वेषभाष को दूर हटा दें और समयानुकूल विचार की शक्ति देकर श्रीसंघ के महत्व को अक्षुण्ण रखें 1
'जेन-जीवन' ता० २३ सेप्टेम्बर, सन् १६२६, एवं जैन-युन पु० ५,
अङ्क १-२-३ १६८५-८६ पृ० १६-१७
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