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* प्रयन्धावली. इन में फविवर वृन्द जी आदि विद्वान हो गये है। उनके वंशज पं० जयलाल जी शर्मा कृष्णगढ़ दरबार के महकुमा तवारीख में थे। उन्हों ने 'मगाशिष भाष्य' नामक पुस्तक प्रकाशित को थो जिस में आशिष के दो अर्थ अर्थात् स्मात धर्मानुसार और जैन सिद्धान्त के अनुकूल लिखे हैं। इस आशिष की रचना किसी समय वाहड़ नाम के भोजफ ने छप्पय में की थी। प्रस्तुय विषय संख्यावाची शब्दों में है। और वे लोग जो मङ्गल कहते हैं उस कविता में रचयिता का कोई नामोल्लेख नहीं है। और मङ्गल में प्रथम कवित्त और पीछे छन्द है और उसी प्रकार संख्यावाची शब्द हैं। यह मङ्गल मैंने अद्यावधि कहीं भी प्रकाशित हुआ नहीं देखा हैं, इसको कविता इस प्रकार है:
वदन अष्टकर दोय जीभ पन्द्रह वखानू सोलह नयन सुचेत चरण को अन्त न जानू। कई चरण हैं गुप्त दोय मैं परगट दिट्ठा
कहीं जीभ विष वसै कहीं रस चवै सुमिट्ठा। फर दोय देह एक पूछड़ी सकल वल्य रस चवै प्रसन देव हम तुम सदा सो अर्थ पूछ पण्डित लभे ॥
२४ २४ २४ २४ अठतीया चौछका वारेदना अठतीगुना अरिहंत मङ्गल ।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमप्रभु
मङ्गलं स्थूलभद्रायाः जैनधर्मोस्तु मङ्गलं ॥ मङ्गल में प्रथम श्रीपार्श्वनाथ की स्तुति हैं। यहां पाठकों को यह सूचित करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा कि जैनियों के चौबीस तीर्थंकर रहते हुए पार्श्वनाथ की स्तुति करने की आवश्यकता यह हुई कि उनके पट्ट परम्परा में जो उपकेशगच्छ था उसके आचार्य रत्नप्रभ सूरि थे और उनके द्वारा जैनो बनाये जाने के कारण कवि ने पार्श्वनाथ का ही बन्दना किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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