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* प्रबन्धावली * “जटमल ने संवत् १६८० में जो गोरा बादल की कथा' लिनी है. उसमें 'हिंदवी' शब्द लिखा है। इन सब बातोंसे सूचित होता है कि इस सयय तक हिन्दीके अरबी फारसी मिश्रित रूपका नाम 'उदु' नहीं पड़ा था।"
परन्तु वास्तवमें जटमल ने अपने काव्य में 'हिंदवी' ऐसा कोई शब्द ही नहीं लिखा है। फिर पृ. ७६ पर भट्टजी ने भी वहो वर्णन किया है_ “जटमल ने 'गोरा बादल की कथा' गद्य में लिखी। इसकी भाषा शुद्ध खड़ी बोली नहीं है, यद्यपि चेष्टा उसी में लिखने की की गई है।"
मुझे आशा है कि अध्यापक नरोत्तमदासजो अपने सुसम्पादित संस्करण को प्रकाशित कर हिन्दी-साहित्यके इतिहास के इस भ्रमको दूर करेंगे, तथा और भी विद्वान्गण इस काव्यको प्रतियों की खोजकर कवि जटमल की अन्य कृतियोंको प्रकाशित करेंगे।
रायबहादुर श्यामसुन्दरदासजी की रिपोर्ट में तथा बाद में प्रकाशित हिन्दी-भाषा के इतिहासों में गोरा बादल की कथा' के मूल और अनुवाद के पाठ में भी स्थान-स्थान में घहो भ्रम चला आता है। सोसायटी की प्रति एवं बोकानेर और जोधपुरको प्रतियों की नकल
और अपनी प्रतिके निरीक्षण से जो शंकाएँ उठती हैं, उनमें मुख्य यह हैं
रचनाकाल
बीकानेर को प्रति में काव्य का रचनाकाल संवत् १६८६ है
'संवत सोलइ सै छयासो, भला भाद्रव मास ।
एकादसी तिथि वोर के दिन करी धरि उलास ।' सोसायटो को प्रति में रचनाकाल सं० १६८० है
'सोलसे आसीये सम फागुण पुनम मास । वीरा रस सीणगार रस का जटमल सुपरकास।'
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