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* प्रबन्धावली हो योग्यता पर निर्भर है। यदि स्त्रियां शिक्षित रहे तो सांसारिक जीवन सुख शांति मय होता है। पुरुषों को गृह कार्य में उनसे बड़ी सहायता मिलती है। परन्तु अपने तो उनको एक स्थावर सम्पत्ति-सा मान रखा है। न तो अपने महिलाओं का स्वास्थ्य का ख्याल रखते हैं और न उनकी शिक्षा का। व्यायाम, स्वच्छ वायु सेवम, आदि स्वास्थ्यकर व्यवस्था उनके भाग्य में मानों लिखी हो नहीं है। हजारों के लाखों के जेवरों से लाभ नहीं होगा। उपरोक्त कारणों से अपने समाज की प्रायः स्त्रियां अस्वस्थ रहती है। क्षयरोग, रक्ताल्पता आदि कठिन व्याधि पीड़ित महिलाओं को संख्या बढ़ती जाती है। अवशेष में उनका सारा जीवन नष्ट हो जाता है। रात दिन वैद्य और डाक्टरों के पीछे अर्थ नाश करना पड़ता है और वे बिचारी कष्ट भोगती हैं और साथ हो अपना गार्हस्थ्य जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः समाज का कर्तव्य है कि पुरुषों की शिक्षा के साथ २ स्त्री शिक्षा का समयानु. कूल प्रबन्ध करे, पुरानी रूढ़ियों को हटावे, स्त्रियों के व्यायाम को
और शुद्ध आहार विहार और स्वच्छ वायु सेवन आदि की व्यवस्था करे। रोगी वर्या, शिशु पालन, सिवन कार्य, पाक प्रणालो, संगीत चर्चा, चित्रकलादि विषयों पर प्रत्येक बड़े २ स्थानों में तथा प्रत्येक घरों में जहां तक सम्भव हो इस प्रकार अग्रसर होने से थोड़े ही काल में विशेष सफलता होगी। मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है और सुविज्ञ पाठक भी स्वयं अनुभव किये होंगे कि बालकों की अपेक्षा बालिकाओं की बुद्धि तीब्र होती है। बालक जो कुछ पाठ महीने भर में तैयार करेगा वही कन्या १५-२० दिन में अभ्यास कर सकती है। खेद है कि उनकी शिक्षा पर अपने तनिक भी ध्यान नहीं देते। उनके विवाहादि की मुख्य चिन्ता रखते हैं। गहने और कपड़े, अलङ्कार वेष भूषादि केवल बाह्य आडम्बर है। शिक्षा ही असली गहना है और उनका सारा जीवन सुखी हो सकता है। कला आदि के अभ्यास से उनको अपने उदर पूर्ति के लिये दूसरों का मुखापेक्षि होना नहीं पड़ेगा। दुःख आने पर विचलित नहीं होंगो। सारांश यह है कि अपने समाज में स्त्रो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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