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साहित्य और समाज
साहित्य और समाज का ऐसा घनिष्ट सम्बन्ध है कि यदि कोई इस विषय पर लिखें तो अनायास एक विशाल प्रन्थ बन सकता है। साहित्य से समाज पर और समाज का साहित्य पर कौन २ समय में किस प्रकार प्रभाव पड़ा, इतिहास अवलोकन से इनके दृष्टान्त बहुधा मिलेंगे। यहां कुछ शब्दों में इस ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है।
मनुष्य सृष्टि की एक ऐसी वस्तु है कि उसको अपने मनो वृत्ति विकास के क्षेत्र की सदा आवश्यकता रहती है और सहे पुरुष हो चाहे स्त्री हो वह अपने साथी को चाहता है कि जिस के साथ वह अपने विचारों को प्रकट करता रहे। इसी कारण मनुष्य अपनो २ भाषा में चाहे गद्य में. चाहे पद्य में, अपने २ भावों को विकास में लाते रहते हैं और इसी में उनको आनन्द मिलता है। इस प्रकार मनुष्यों के मनोगत भावों का विकास हो साहित्य है और समाज भी कुछ ऐसे लोगों को समष्टि मात्र है। स्त्रो पुरुष दोनों ही समाज के अंग है और इन युगलों के रहन सहन और विचारों में एकता होने से समाज को सृष्टि होती है। समाज वृक्ष का साहित्य फल है और साहित्य रूपो फल में समाज रूपो वृक्ष को हराभरा रखने को शक्ति विद्यमान है। मानव जाति के इतिहास से ज्ञात होता है कि इन दोनों ने किस प्रकार एक दूसरे को सहायता पहुंचाई है। जिस प्रकार समाज को परिधि मात विस्ता है उसी तरह साहित्य क्षेत्र भी विशाल है। जैसे
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