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** प्रबन्धावली *
मूल प्रन्थकर्त्ता का विचार अविकल रूप से सर्व साधारण में न प्रचा रित हो तब तक उस प्रन्थ का सच्चा प्रचार हुआ ऐसा समझना नहीं चाहिये 1 भौर यह तब हो सक्ता है कि जब सम्पादक मूल ग्रन्थकार के आशय को ठीक समझ कर अपने काम में हाथ दें। यह हम लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रचलित भाषा पांच २ या दस २ या सौ सौ कोसों पर कुछ न कुछ बदली हुई प्रतीत होती हैं । और हम जितने अधिक दूर जायेंगे उतना ही हमें प्रत्यक्ष और परोक्ष अन्तर मिलेगा 1 यहां तक कि दो तीन सौ कोस पर जाकर इतना अन्तर हो जाता है कि परस्पर की भाषा समझने में भी कठिनाइयां पड़ती हैं। देखिये यदि कोई काश्मीर से पांच २ या दस २ कोस प्रति दिन चलता हुआ बंगाल पहुंचेगा तो उसे बंग भाषा सीखे बिना ही समझ में आती जायगी । और यदि विश्राम करता हुआ आवे तो उसे क्रमागत अन्तर प्रतीत नहीं होगा । संयुक्त प्रांत की भाषा पंजाब व बिहार से समता रखती है बिहार की भाषा में बंगला रंग चढ़ने लगता है, मिथिला होते हुए बंगाल पहुंचने तक वही पंजाबी बंगला हो जाती है । अथवा यदि बंगाल से पंजाब जांय तो वही बंगला भाषा क्रमशः पंजाब पहुंचने तक पंजाबी बनी हुई मिलेगी ।
जो सज्जन किसी भाषा के प्राचीन साहित्य के मर्मज्ञ होना चाहते हैं उन्हें आवश्यक है कि प्रथम उसी भाषा के वर्तमान रूप से यथेष्ट परवित होकर क्रमशः पीछे को चलें, जैसे कि हमें हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का पूरा ज्ञान हो तो पहिले वर्तमान समय के कुछ प्राकृत व्याकरण प्रन्थ देखकर क्रम से आगे के ग्रन्थ पढ़ते चले जांय । और उन के समय के पोछे के जहां तक ग्रन्थ मिलते जांय, इसी प्रकार बढ़ते हुए वहां तक देखते जांय, तो उन के व्याकरण के मर्म्म जानने में बहुत कम कठिनाई होगो । अस्तु इस रीति से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही हम अपनी टीका टिप्पणी द्वारा यथावत् मूल ग्रन्थकर्त्ता के मनोभावों को शुद्ध रूप से विद्वानों के समक्ष रखने में समर्थ हो सके हैं। यदि
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