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• प्रबन्धावली अक्षरों का मोर आवश्यकानुयायो लाल पीले रंगों से संकेतों का व्यवहार जो बहुत प्राचीन काल से चला आता है, वह नियम भा सम्पादकों को पूरा ध्यान में रखना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य को सुबोध और सर्वप्रिय समय बचाने वाला करने के लिये प्रकाशित करने के समय अन्य को आवश्यकीय सूचियां दाखिल करनी भो सम्पादक का प्रधान कर्तन्य है। यदि पुस्तक शुद्ध हो नहीं हुई पूरी छान चीन जांच पड़ताल के साथ छापा हान मई तो दूसरी गौण पातों पर जोन ध्यान देता है।
यह अधिक समय की बात नहीं है कि मुर्शदाबाद निवासी स्वर्गीय रायबहादुर धनपतिसिंह जी ने बहुत सा द्रन्य व्यय करके श्वे. जैन प्रन्यों को सम्पादत कराकर प्रकाशित किया था। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि वे पुस्तक अशुद्धियों के कारण विद्वानों में यथेष्ट सम्मानित नहीं हुई। इनके प्रकाशित अन्यों पर श्रद्धेय डाकूर हार्नल साहब लिखते हैं:
“As an edition it is worthless, being made with no regard whatsoever to textual or grammatical correctness, both in its Sanskrit and Prakrit portions" ( Upasaka-dasa, Bibliotheca Indica Series, Introduction, page xi, Calcutta 1890, )
तात्पर्य यह है कि हम अन्यों के सम्पादन कार्यकर्ता को मापने बिलकुल ही बसलाया। परन्तु यह पुल की बात है कि धन लगाया जाय भोर लाम में उल्टी बदनामी मिले। यह केवल थोड़ी सो असायपानी का हो फल होता है। अतएव उपर्युक विषयों पर ध्यान रखकर सम्पादन कार्य सदा धैर्य के साथ करना चाहिये। माल की प्रसिद्ध ऐशियाटिक सोसाइटी से रार हानले ने उक 'भो उपासक पशा' नामक जैन श्वेताम्बर भागम का सानुबाद संस्करण प्रकाशित
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