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“प्रबन्धावलो.
एक बार ही छलांग मारकर प्राचीन साहित्य सम्पादन करने बैठेंगे तो हमें अगणित ठोकरें खानी पड़ेगो और हम भरोसे के साथ न कह सगे कि हमारा अर्थ निस्सन्देह ग्रन्थकार के भाव का यथावत द्योतक है। अतएव अन्यसम्पादन कार्य के लिये भाषा का ज्ञान अत्यावश्यक है। इसी ज्ञान से सम्पादकों को लेखों की भूले, सुलेखों के अक्षरों को मरोड़े, और उनकी व्यक्तिगत अभिरुचि और भावों का सौन्दर्य सम्पूर्ण रूप से प्रतीत हो जायगा। और यही भाषा-ज्ञानरूपी कवच धारण करके सर्व प्रकार की कठिनाइयों से युद्ध करते हुए हम सम्पा. दन रूप कठोर कार्यक्षेत्र में अग्रसर होते चले जायगे।
दूसरा प्रन्य निर्वाचन कार्य भी कठिन है। कौन से अन्य के जोर्णोद्धार का प्रचार पहिले होना आवश्यक है, वह अन्य किस विषय का है और कितना पुराना है, उस के सम्पादन कार्य में कौन समर्थ है कि जिन्हें वह सौंपा जाय इत्यादि बातें इस विषय में विचारणीय है। हमारे विवार से दार्शनिक वा वैज्ञानिक प्रन्थों की रक्षा सर्वोपरि है। परंतु ये हर किसी के हाथों से न्याय पाने वाले विषय नहीं है। अत. एव इस विषय में यदि इन बातों पर ध्यान नहीं दिया गया तो इस कार्य में लगाई हुई शक्ति और अर्थ व्यर्थ ही जायगा।
प्राचीन जैन साहित्य के निर्वाचन पर हो उन का सम्पादन कार्य सर्वथा निर्भर है। भाजकल इस कार्य में किसी प्रकार का नियम, किसा भांति की ला, कोई विषय विभाग का विचार पूर्ण रूप से नहीं किया जाता है। कहां तक कहें कुछ है ही नहीं! हमें माज तक पूग पता नहीं कि हमारे घर में कितने व्याकरण है, कितने कोष है, और उनमें से किन्हें पहिले सम्पादन करना उचित है। पुस्तकों के निर्वाचन सम्पादन वा प्रकाशन में कुछ न कुछ उद्देश्य, सिद्धांत, कोई निश्चित अभीष्ट अवश्य होना चाहिये। परंतु वह हमारे यहां कुछ भी नहीं। एक पुस्तक का एक मंश अथवा भाग छपा है तो दूसरे की कुछ भी
खबर नहीं ली गई। इसी प्रकार से समय का विचार या विषय का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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