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•प्रबन्धावली.
अधिक पढ़ी जायगी। कठिन भाषा के पत्रों को केवल विद्वान हो
(१) पत्र पत्रिका ऐसी प्रकाशित होनी चाहिये कि जिन्हें देखकर चित्त प्रसन्न हो। उनमें काग़ज़ आदि भी ऐसे दिये बांय कि वह कुछ लमय अवश्य ठहरें।
(३) उनके मूल्य पर भी ध्यान रखना चाहिये। अथशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार थोड़े मुनाफे से अधिक माल बेचना, बहुत लाभ से थोड़ा माल बेचने से अधिक लाभदायक होता है। जहां तक बने लागत से दुना दाम रक्खा जाय तो ठीक है। यदि कम करना संभव हो तो और अच्छी बात है।
(४) पत्र पत्रिका प्रकाशित होने पर उनका सर्वत्र प्रचार होना चाहिये। इस कार्य में देशान्तरों में अधिक अर्थ व्यय करते हैं।
(५) प्रकाशित विषयों पर स्वतन्त्र आलोचना आमन्त्रित करना चाहिये। इससे वे विषय निर्दोष होते जाते हैं और उनकी त्रुटियां भी ज्ञात होती जाती है। कहना बाहुल्य है कि समालोचना से पुस्तक की बिक्री भी बढ़ती है।
अंग्रेजी में सम्पादन कार्य के विषय पर कई ग्रन्थ हैं परन्तु यहां इस विषय की चर्या कम रहने के कारण अपने भारतवासी सम्पादन कार्य में अधिक अवसर नहीं हो सके हैं वर्तमान समय में इस विषय की आवश्यकता प्रति दिन बढ़ती जा रही है। इस कारण आशा है कि सम्पादन कार्य के गुरुत्व पर उचित ध्यान रखने से इस देश में भी सम्पादक लोग सफलता प्राप्त केगे और सर्वत्र प्रशंसापात्र होवेंगे।
"वीर" वर्ष-२(१९२४-२५), अङ्क ११-१२, पृ० २६८-३०२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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