Book Title: Paumchariyam Part 02
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 23
________________ १९५ अंजणानिव्वासणहणुयउप्पत्तिअहियारो-१७/५०-७५ । नामेण संजमसिरी, तइया अज्जा कएण भिक्खाए । नयरम्मि परिभमन्ती, पेच्छइ घरबाहिरे पडिमा ॥६॥ मुणियपरमत्थसारा, अज्जा कणओयरिं भणइ एत्तो । भद्दे ! सुणाहि वयणं, जंतुज्झ हियं च पत्थं च ॥६४॥ नरय-तिरिएसु जीवो, हिण्डन्तो निययपावपडिबद्धो । दुक्खेहि माणुसत्तं, पावइ कम्मावसेसेणं ॥६५॥ तं चेव तुमे लद्भ, माणुसजम्मं कुलं चिय विसिटुं । होऊण एरिसगुणा, मा कुणसु दुगुञ्छियं कम्मं ॥६६॥ जो जिण-गुरुपडिकुट्ठो, पुरिसो महिला व होइ जियलोए । सो हिण्डइ संसारे, दुक्खसहस्साइ पावेन्तो ॥६७॥ सोऊण अज्जियाए, वयणं कणओयरी सुपडिबुद्धा । ठावेइ चेइयहरे, जिणवरपडिमा पयत्तेणं ॥६८॥ जाया गिहिधम्मरया, कालगता तत्थ संजमगुणेणं । देवी होऊण चुया, उप्पन्ना अञ्जणा एसा ॥६९॥ जं बाहिरम्मि पडिमा, ठविया एयाए राग-दोसेणं । तं एस महादुक्खं, अणुहूयं रायधूयाए ॥७०॥ गेण्हसु जिणवरधम्म, बाले ! संसारदुक्खनासयरं । मा पुणरवि घोरयरे, भमिहिसि भवसागरे घोरे ॥७१॥ जो तुज्झ एस गब्भो, होही पुत्तो गुणाहिओ लोए । सो विज्जाहरइड्डिं, सम्मत्तगुणं च पाविहिइ ॥७२॥ थोवदिवसेसु बाले !, दइएण समं समागमो तुझं । होही निस्संदेहं, भयमुव्वेयं विवज्जेहि ॥७३॥ भावेण वन्दिओ सो, समणो दाऊण ताण आसीसं । उप्पइय नहयलेणं, निययट्ठाणं गओ धीरो ॥७४॥ पलियङ्कगुहावासे, तोए उवगरण-भोयणाईयं । सव्वं वसन्तमाला, करेइ विज्जानिओगेणं ॥५॥ नाम्ना संयमश्रीस्तदाऽऽर्या कृतेन भिक्षायाः । नगरे परिभ्रमन्ती पश्यति गृहबहिः प्रतिमा ॥६३।। ज्ञातपरमार्थसाराऽऽर्या कनकोदर भणतीतः । भद्रे ! श्रुणु वचनं यत्तव हितं च पथ्यं च ॥६४|| नरक-तिर्यक्षु जीवो हिण्डमानोनिजपापप्रतिबद्धः । दुःखै र्मानुष्यत्वं प्राप्नोति कर्मावशेषेण ॥६५॥ तदेव त्वया लब्धं मनुष्यजन्म कुलमेव विशिष्टम् । भूत्वेतादृशगुणा मा कुरुष्व जुगुप्सितं कर्म ॥६६॥ यो जिन-गुरुप्रतिकृष्टः पुरुषो महिला व भवति जीवलोके । स हिण्डते संसारे दुःख सहस्राणि प्राप्नुवन् ॥६७॥ श्रुत्वाऽऽर्याया वचनं कनकोदरी सुप्रतिबुद्धा । स्थापयति चैत्यगृहे जिनवरप्रतिमा प्रयत्नेन ।।६८|| जाता गृहिधर्मरता कालगता तत्र वा संयमगुणेन । देवी भूत्वा च्युतोत्पन्नाऽञ्जनैषा ॥६९॥ यद्वर्हिः प्रतिमा स्थापिताऽनया रागद्वेषेण । तदेतन्महादुःखमनुभूतं राजपुत्र्या ॥७०॥ गृहाण जिनवरधर्म बाले ! संसारदुःखनाशकरम् । मा पुनरपि घोरतरे भ्रमिष्यसि भवसागरे घोरे ॥७१॥ यस्तवैष गर्भोभविष्यति पुत्रो गुणाधिको लोके । स विद्याधरद्धिं सम्यक्त्वगुणं च प्राप्स्यति ॥७२॥ स्तोकदिवसै र्बाले ! दयितेन समं समागमस्तव । भविष्यति निस्संदेहं भयमुद्वेगं विवर्जय ॥७३॥ भावेन वन्दितः स श्रमणो दत्वा तयोराशीषम् । उत्पत्य नभस्तलेन निजस्थानं गतो धीरः ॥७४।। पर्यंकगुहावासे तस्या उपकरणभोजनादिकम् । सर्वं वसन्तमाला करोति विद्यानियोगेन ॥७५।। १. राजदुहित्रा। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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