Book Title: Paumchariyam Part 02
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan

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Page 106
________________ २७८ केई गुहानिवासी, पब्भारेसु य अवट्ठिया समणा । गिरिकन्दरेसु अन्ने, समासिया चेइयहरेसु ॥३९॥ सो सव्वभूयसरणो, चाउव्वण्णेण समणसङ्गेणं । तत्थेव गमइ मासं, ताव च्चिय पाउसो पत्तो ॥४०॥ गज्जन्ति घणा गरुयं, पाडिच्छडाडोवभासुरं गयणं । धारासयजज्जरिया, नवसाससमाउला पुई ॥४१॥ परिवन्ति नदीओ, जाया पहियाण दुग्गमा पन्था । ऊसुगमणाओ एत्तो, गयवइयाओ विसूरेन्ति ॥ ४२ ॥ झज्झत्ति निज्झराणं, बप्पीहय- दहुराण मोराणं । सद्दो पवित्थरन्तो, वारणलीलं विलम्बे ॥४३॥ एयारिसम्म काले, समणा सज्झाय-झाण- तवनिरया । अच्छन्ति महासत्ता, दुक्खविमोक्खं विचिन्तेन्ता ॥४४॥ अह अन्नया नरिन्दो, पभायसमये भडेहि परिकिण्णो । वच्चइ उज्जाणवरं, मुणिवन्दणभत्तिराएणं ॥४५॥ संपत्तो य दसरहो, अहिवन्देऊण भावओ साहू । तत्थेव य उवविट्ठो, सुणेइ सिद्धन्तसंबन्धं ॥ ४६ ॥ लोगो दव्वाणि तहा, खेत्तविभागो य कालसब्भावो । कुलगरपरम्परा वि य, नरेन्दवंसा अणेगविहा ॥४७॥ सुणिऊण पणमिण य, मुणिवसहं नरवई पहट्टमणो । पविसरइ निययनयरी, गमेइ कालं जहिच्छाए ॥४८॥ पउमचरियं एवं राया मुणिगुणकहासत्तचित्तो महप्पा, पूया - दाणं विणयपणओ देइ सव्वायरेणं । सेविज्जन्तो गमइ दियहे दिव्वनारीजणेणं, पुव्वोवत्तं विमलहियओ भुञ्जई देहसोक्खं ॥ ४९ ॥ ॥ इय पउमचरिए दसरहवइरागसव्वभूयसरणागमो नाम एगूणतीसइमो उद्देसओ समत्तो ॥ I asu गुफानिवासिनः प्राग्भारेषु चावस्थिताः श्रमणाः । गिरिकन्दरेष्वन्ये समाश्रिताश्चैत्यगृहेषु ॥३९॥ स सर्वभूतशरणश्चतुवर्णेन श्रमणसङ्खेन । तत्रैव गमयति मासं तावदेव प्रावृट् प्राप्तः ॥४०॥ गर्जन्ति घना गुरुकं, तडिच्छायेपभासुरं गगनम् । धाराशतजर्जरिता नवशस्यसमाकुला पृथिवी ॥४१॥ परिवर्धन्ते नद्यो जाता पथिकानां दुर्गमाः पन्थानः । उत्सुकमनस इतो गतपतिकाः खिद्यन्ते ॥ ४२ ॥ झर्झर इति निर्झराणां चातक - दुर्दुराणां मयूराणाम् । शब्दः प्रविस्तरन् वारणलीलां विडम्बयति ॥४३॥ एतादृशे काले श्रमणा: स्वाध्याय - ध्यान - तपोनिरताः । आसते महासत्त्वा दुःखविमोक्षं विचिन्तयन्तः ॥४४॥ अथान्यदा नरेन्द्रः प्रभातसमये भटैः परिकीर्णः । व्रजत्युद्यानवरं मुनिवन्दनभक्तिरागेण ॥४५॥ संप्राप्तश्च दशरथोऽभिवन्द्य भावात्साधुंस्तत्रैव चोपविष्टः श्रुणोति सिद्धान्तसम्बन्धम् ॥३६॥ लोको द्रव्याणि तथा क्षेत्रविभागश्च कालसद्भावः । कुलकरपरम्पराऽपि च नरेन्द्रवंशा अनेकविधाः ॥४७॥ श्रुत्वा प्रणम्य च मुनिवृषभं प्रहृष्टमनाः । प्रविशति निजनगरीं गमयति कालं यथेच्छया ॥४८॥ एवं राजा मुनिगुणकथासक्तचित्तो महात्मा पूजा - दानं विनयप्रणतो ददाति सर्वादरेण । सेव्यमानो गमयति दिवसान् दिव्यनारीजनेन पूर्वोपेतं विमलहृदयो भुनक्ति देहसौख्यम् ॥४९॥ ॥ इति पद्मचरित्रे दशरथवैराग्य- सर्वभूत-शरणागमो नामैकोनत्रिंशत्तम उद्देशः समाप्तः ॥ १. सुणिऊण - प्रत्य० । २. नयरि- प्रत्य० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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