Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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प्राक्कथन
श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जैनदर्शन में कर्म-विचारणा एक महत्वपूर्ण अंग रूप है। स्याद्वाद और अहिंसावाद की व्याख्या और वर्णन जैसा जैन दर्शन ने किया है उतनी ही कुशलता से कर्मवाद का विचार भी किया है । यही कारण है कि जैनदर्शन द्वारा की गई कर्म-विचारणा विश्व के दार्शनिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण प्रमुख अंग है। ___जैनदर्शन में कर्म-विचारणा को प्रमुखता देने के तीन प्रयोजन
१. वैदिक दर्शनों में ईश्वरविषयक ऐसी कल्पना की गई है कि जगत का उत्पादक ईश्वर ही है, वही अच्छे या बुरे कर्मों का फल जीव से भोगवाता है । कर्म जड़ होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फलभोग नहीं करा सकते हैं । जीव चाहे कितनी ही उच्चकोटि का हो, परन्तु वह अपना विकास करके ईश्वर नहीं हो सकता है, जीव जीव ही रहेगा। ईश्वर के अनुग्रह के बिना उसका संसार से निस्तार नहीं हो सकता है।
किन्तु इस प्रकार के विश्वास में यह तीन भूलें हैं-१ कृतकृत्य ईश्वर का निष्प्रयोजन सृष्टि में हस्तक्षेप करना। २ आत्म-स्वातंत्र्य का अपलाप कर दिया जाना । ३ कर्म की शक्ति का ज्ञान न होना। ये भूलें जैसे वर्तमान में प्रचलित हैं, तदनुरूप भगवान महावीर के युग में भो प्रचलित थीं । इसीलिये इन भूलों का परिमार्जन करने और यथार्थ वस्तुस्थिति को बतलाने के लिये भगवान महावीर ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।