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जीवधर स्वामि चरित
विनासीक जाने जग भाव, उत्तम जन को इहै स्वभाव । सब व्यापक है जाकी ज्ञान, सो सर्वज्ञ देव भगवान ॥५४॥1 ताने सकल लखो परजाय, कबहू कोई थिर न रहाय । काह सौं करिवो नहीं प्रीति, परचम तौ ग्राछी इह रीति ।।५।। अर जौ कहूँ प्रीति ह करें, तो इह बात हिये मैं धरै। घरतमांन अर हगी जोहू, इन सौं प्रीति होय तो होहु ।।५६।। गई वस्तु सौं कसी प्रीति, वृथा सोक धरिवौ सठ रीति । कौंन परिष सर मोनु जुन रि, नीद त्रिलिंग रहित अविकारि ।।५७|| लखि भूठौ संसार चरित्र, कर्म जोग संबंध विचित्र । चरिम सरोरी सुत इह जानि, अति परतापी पूजि प्रवानि ।।५८।। दुष्ट शत्रु कौं करें निकंद, तो कौं उपजावे अानन्द । करि सनान लै जोगि प्रहार, समाधान धरि मन मैं सार ।।५६।। सोक किये भरतार न मिलें, काल पदारथ सब को गिल । भिन्न भिन्न सबकी गति जांनि, कर्म भेदतै भेद प्रवानि ।।६।। इत्यादिक युक्तिनि समुझाय, सीक रहित कोनी सुत माय ।
आप रही थाही के पासि, महा मित्रता रीति प्रकासि ।।६१।। गंधोत्कट को मृत पुत्र की प्राप्ति
दुख में कबहु न छांडे मंग, इह मिनि को धर्म अभंग अब आयो गंधोत्कट जहां, मृतग पुत्र नाष नर तहाँ ।।६।। नांषि आपनौ मिरतक बाल, जात हुतो घर कौं ततकाल ।
सुन्यौं तवै मुस्वर गंभीर, रानी सुत की सेठ सुधीर ।।६३।। जीबंधर की प्राप्ति
तव चितारे मुनि के बैन, चित में पायो बहुतहि चैन ।
जीवो जीवो वालक महा, पुण्य प्रभाव जनम इह लहा ॥६४।। - हाथ पसारे करि अति नेह, रानी जान्यौं श्रेष्ठी एह । दियो पुत्र तव ताकै हाथ, जी हहै पिरथी को नाथ ।।६।।